Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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[ १३ ] सागर से अधिक नहीं होता और वह प्रकृति कुछ अन्तमुहूर्त पाठ वर्ष कम दो पूर्व कोटि +३३ सागर से अधिक सत्ता में मौजूद नहीं रह सकती। दुषम-सुषम काल का प्रमाण ४२ हजार वर्ष कम एक कोडाकोडी सागर है और इस काल में जब ३ वर्ष ८ माह अवशेष रहेगे तब (सात्यकि पुत्र का जीव) २४ वें अनन्तवीर्य तीर्थकर मोक्ष जावेंगे। यह काल अनक करोड़ सागर प्रमाण है और इतने कालतक तीर्थंकर प्रकृति बंधक जीव संसार में नहीं रह सकता।
ति० प० तृतीयखण्ड : पंचम से नवम महाधिकार इस खण्ड सम्बन्धी पांचों अधिकारों के कतिपय स्थलों एवं विषयों का समाधान बुद्धिगत नहीं हुआ जो गुरुजनों एवं विद्वानों द्वारा विचारणीय है--
पंचम-महाधिकार-* गाथा ७ में २५ कोडाकोड़ी उद्धार पल्य के रोमों प्रमाण द्वीप-सागर का और गाथा २७ में ६४ कम २३ उद्धार सागर के रोमों प्रमाण द्वीप-सागर का प्रमाण कहा गया है । गाथा १३० के कथनानुसार २५ कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्य बराबर ही २३ उद्धार सागर है। जब गाथा २७ में ६४ कम किये हैं तब गाथा ७ में ६४ हीन क्यों नहीं कहे गये ?
सप्तम महाधिकार-* गाथा ६ में ज्योतिषी देवों के अगम्य क्षेत्र का प्रमाण योजनों में कहा गया है किन्तु इस प्रमाण की प्राप्ति परिधि ४ व्यास का चतुर्थाश x ऊंचाई के परस्पर गुणन से होती है अत: घन योजन ही हैं मात्र योजन नहीं ।।
* वातवलय से ज्योतिषो देवों के अन्तराल का प्रमाण प्राप्त करने हेतु गाथा ७ को मूल संदृष्टि में इच्छा राशि १९०० और लब्ध राशि १०८४ कहो गई है किन्तु १९०० इच्छा राशि के माध्यम से १०८४ योजन प्राप्त नहीं होते। यदि शनि ग्रह की ३ योजन ऊंचाई छोड़कर अर्थात् { १६००-३) १८९७ योजन इच्छा राशि मानकर गणित किया जाता है तो संदृष्टि के अनुसार १०८४ योजन प्रमाण प्राप्त होता है, जो विचारणीय है।
* गाथा ८६ एवं १० का विषय विशेषार्थ में स्पष्ट अवश्य किया है किन्तु आत्म तृष्टि नहीं है अतः पुनः विचारणीय है ।
* गाथा २०२ में राहु का बाहल्य कुछ कम अधं योजन कहकर पाठान्तर में वही बाहत्य २५० धनुष है किन्तु केतु का बाहल्य प्राचार्य स्वयं (गा० २७५ में ) २५० धनुष कह रहे हैं जो विचारणीय है । क्योंकि पागम में राहु-केतु दोनों के व्यास आदि का प्रमाण सदृश ही कहा गया है।
* बिलोकसार गा० ३८९-३९१ में कहा गया है कि भरत क्षेत्र का सूर्य जब निषधाचल के ऊपर १४६२१ उपयो० आता है तब चक्रवर्ती द्वारा देखा जाता है किन्तु यहाँ गाथा ४३४-४३५ में