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ताओ की अबुपस्थित उपस्थिति
जरूरत नहीं है कि राम भगवान हैं। यह तो व्यर्थ की बकवास है। यहां कुछ है ही नहीं, जो भगवान नहीं है। तो राम तो भगवान होंगे ही। यहां तो होना मात्र ही भगवान का है। लेकिन फिर हमें कोशिश करनी पड़ती है। फिर अकेले सीधे-सादे आदमी से तो भगवान नहीं होता। तो फिर हमें तरकीबें खोजनी पड़ती हैं कि ये-ये कारण हैं, जिनसे वे भगवान हैं। फिर हम उनको सामने खड़ा कर लेते हैं। फिर सामने खड़ा करके हम निश्चित हो जाते हैं। फिर यह जो रहस्यमयी विशेषता है परमात्मा की, इसको हमने भुलाया, हमने इसको छुड़ाया, अलग किया अपने से। हमने अपना भगवान खड़ा कर लिया। फिर हम मूर्ति बनाते, अवतार बनाते, तीर्थंकर बनाते और इनके आस-पास हम घूमते। क्योंकि हमारे तर्क में ये तो समझ में आते हैं, यह लाओत्से की मिस्टीरियस क्वालिटी ऑफ दि ताओ, यह रहस्यमयी विशेषता हमारी समझ में नहीं आती।
लेकिन जब तक यह समझ में न आए, तब तक जानना कि धर्म के द्वार पर आपका प्रवेश नहीं हुआ है। जिस दिन इस रहस्यमयी विशेषता को समझ में लाने की आप क्षमता जुटा लें, उसी दिन प्रभु के मंदिर की आपको पहली झलक मिलेगी। उसके पहले कोई भी झलक नहीं मिल सकती। उसके पहले के बनाए गए परमात्मा आपके गृह-उद्योग के फल हैं, होम मेड। उसके पहले निर्मित अवतार, तीर्थंकर आपकी कुशलता, आपकी कला के सबूत हैं।
अगर परमात्मा में प्रवेश करना है, तो इस रहस्यमयी विशेषता को स्मरण रखना। ही इज़ प्रेजेंट, एज इफ ही इज़ नाट; ही इज़ एब्सेंट, यट ही इज़ प्रेजेंट। अनुपस्थित है वह, और मौजद; और मौजूद है सब जगह, और ऐसे जैसे कि नहीं है। इसे अगर सतत स्मरण रख सकें और यह श्वास-श्वास में प्रवेश कर जाए, तो आपके जीवन में धर्म का उदघाटन, उसका पर्दा उठना शुरू हो जा सकता है।
आज इतना ही। पांच मिनट रुकेंगे; और बैठे न रहें, जब कीर्तन यहां चलता है तो कीर्तन में आप भी ताली बजा कर सम्मिलित हो जाएं। जिन मित्रों को नाचना हो, वे नीचे भी आ जाएं।
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