Book Title: Tao Upnishad Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 373
________________ आध्यात्मिक वासना का त्याग व सरल स्व का उदघाटन 363 इसलिए बुद्ध ने ईश्वर, आत्मा, इनकी बात ही नहीं की। बहुत लोगों को बुद्ध नास्तिक मालूम पड़े। स्वाभाविक था मालूम पड़ना । लगा कि यह आदमी महा नास्तिक है, क्योंकि आत्मा तक को नहीं मानता। ईश्वर को न माने, तब तक भी चल सकता है, कम से कम आत्मा को तो माने। यह आदमी आत्मा तक को नहीं मानता। बुद्ध कहते थे, मैं सिर्फ शून्य को मानता हूं। बड़े मजे की बात है, शून्य की आप कोई धारणा नहीं बना सकते। या कि बना सकते हैं? अगर आप शून्य की धारणा बना सकते हैं, तो वह शून्य न होगा। जिसकी धारणा बन जाए, वह वस्तु है । शून्य का कोई आकार है आप धारणा बना लेंगे? आप परमात्मा की धारणा बना सकते हैं। बना ली हैं हमने । इतनी मूर्तियां निर्मित की हैं, इतने आकार निर्मित किए हैं। आत्मा की धारणा आप बना लेंगे। हमने धारणाएं बनाई हैं और बड़ी मजेदार धारणाएं तक बनाई हैं । कोई मानता है कि आत्मा अंगूठे के आकार की है। कोई मानता है कि आत्मा ठीक शरीर के आकार की है। कोई मानता है कि आत्मा का तरल आकार है। तो जैसे शरीर में प्रवेश करती है, वैसे ही आकार की हो जाती है। जैसे पानी को गिलास में डाला, तो गिलास; और लोटे में डाला, तो लोटे का आकार ले लिया। ऐसे ही आत्मा लिक्विड है। आदमी के शरीर में होती है, तो आदमी के शरीर की होती है; चींटी के शरीर में चली जाती है, तो चींटी के शरीर जैसी हो जाती है; हाथी के शरीर में चली जाती है, तो हाथी के शरीर जैसी हो जाती है। लेकिन शून्य की क्या धारणा ? शून्य का अर्थ ही है कि जिसकी कोई धारणा न बना सके। बुद्ध ने कहा, अगर तुम मेरा भरोसा, मेरा विश्वास, मेरी श्रद्धा ही पूछते हो; तो मेरी श्रद्धा सिर्फ एक चीज में है - शून्यता, एम्पटीनेस | क्यों मेरी आस्था शून्यता में है? क्योंकि तुम इसकी धारणा न बना सकोगे। तो मैं तुमसे कहता हूं कि भीतर तुम्हारे आत्मा है या नहीं, मुझे पता नहीं। शून्य जरूर है। तुम उस शून्य में प्रवेश कर जाओ । मुझसे मत पूछो कि कैसा शून्य ? क्योंकि शून्य कैसा नहीं होता । शून्य का अर्थ ही है कि जिसके बाबत कुछ भी न कहा जा सके। जो है ही नहीं, तो कहा कैसे जा सकेगा? जिसका कोई रंग नहीं है, आकार नहीं है, रूप नहीं है। लाओत्से कहता है, सहज स्व का उदघाटन करो। छोड़ो धार्मिकों की बातें, जिन्होंने कहा है कि आत्मा ऐसी है और वैसी है । छोड़ो पंडितों की बातें, जिन्होंने निरूपण किया है कि आत्मा कैसी है और कैसी नहीं है । सब धारणाएं छोड़ो। आत्मा के संबंध में जो भी तुम्हारे खयाल हैं, वे छोड़ दो; और भीतर प्रवेश करो, ताकि जो है, उसका उदघाटन हो सके। और जो है, उसका उदघाटन तभी होता है, जब हम उसके संबंध में कोई बिना विचार लिए भीतर प्रवेश करते हैं। 'तुम अपने सरल स्व का उदघाटन करो, अपने मूल स्वभाव का आलिंगन करो।' पूछो मत किसी से कि तुम्हारा स्वभाव क्या है? पूछने गए कि भटके। पूछने गए कि किसी ने तुम्हारी धारणा बना दी। पूछने गए कि उलझे । आलिंगन ही करो। पूछने मत जाओ, सोचने मत जाओ, खोजने मत जाओ । उतर ही जाओ भीतर उसमें । स्वाद ही ले लो उसका । बुद्ध ने कहा है, सागर को कोई कहीं से भी चखे, वह नमकीन है। कोई किसी युग में, किसी काल में, किसी स्थान में सागर को चखे, वह नमकीन है। उस भीतर के शून्य को जब भी कोई चखता है, जब भी उसका स्वाद लेता है, तो उसका स्वाद एक ही है। लेकिन वह स्वाद गूंगे का गुड़ है, उसे कहा भी नहीं जा सकता। क्योंकि आदमी के पास कोई शब्द नहीं है उसे बताने को कि वह स्वाद मीठा है या नमकीन है या कैसा है। वह स्वाद इतना बड़ा है कि हमारे सब शब्द छोटे पड़ जाते हैं। तो पूछने मत जाओ । उतर ही जाओ स्वयं में। जो निकट है, उसका आलिंगन ही कर लो उसमें डूब जाओ ।

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