Book Title: Tao Upnishad Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 381
________________ आध्यात्मिक वासना का त्याग व सरल स्व का उदघाटन लेकिन हमको अगर कोई भरोसा दिलवा दे कि मिलेगा, वहां भी कुछ मिलेगा, तो फिर हम वहां भी दौड़ने को तत्पर हो जाते हैं। दौड़ चाहिए! ठहरने से मन घबड़ाता है। इसलिए लाओत्से जैसे लोग बहुत भयभीत करवा देते हैं। कनफ्यूशियस बहुत भयभीत होकर लाओत्से के पास से लौटा था। और जब उसके शिष्यों ने पूछा कि कैसा . था यह आदमी? तो कनफ्यूशियस ने कहा, वह कोई आदमी नहीं है। वह एक खतरनाक सिंह की भांति है। उसके • पास जाओ, तो रो-रोआं कंप जाता है, पसीना आ जाता है। वह कोई आदमी नहीं है, वह एक सिंह है। उस तरफ जाना ही मत। वह भीतर आत्मा तक को कंपा देता है। वह इस ढंग से देखता है। एक क्षण उसकी आंख अगर रुक जाए ऊपर, तो प्राण का रोआं-रोआं कंपने लगता है। कंपने ही लगेगा; क्योंकि लाओत्से जो कह रहा है, वह आत्यंतिक है, अल्टीमेट है। वह क्षुद्र बातों पर रुकने के लिए राजी नहीं है। वह क्षुद्र बातों के उत्तर भी नहीं देगा। वह यह भी नहीं कहेगा कि तुम्हें ध्यान से शांति मिलेगी। क्या है मूल्य अशांति का? शांति ही चाहिए, तो ट्रैक्वेलाइजर से मिल जाएगी। क्यों ध्यान के पीछे पड़ते हैं। शांति चाहिए, तो नशा करके लेट जाइए। लेकिन ध्यान की तलाश में भी लोग आते हैं, कोई शांति के लिए आ रहा है, कोई स्वास्थ्य के लिए आ रहा है। तरह-तरह के लोग, लेकिन वासनाएं लेकर ही आते हैं। मंदिरों को भी हम वेश्यालयों से भिन्न व्यवहार नहीं करते, वहां भी हम वासना लेकर ही पहुंच जाते हैं। और जहां हम वासना लेकर पहुंचते हैं, वहीं वेश्यालय हो जाता है। क्योंकि खरीदने की इच्छा है वहां भी। वहां भी हम मंदिर में भी रुपए को जोर से पटक कर कुछ खरीदने पहुंचे हैं आवाज करके। मंदिर में भी लोग रुपया धीरे से नहीं रखते-देखा आपने? ऐसा जोर से पटकते हैं कि खनक की आवाज सब दीवारें सुन लें और अगर परमात्मा कहीं हो, तो उसको भी पता चल जाए कि एक रुपया फेंका है नगद। अब वहां भी हम खरीदने जा रहे हैं। बोधिधर्म भारत के बाहर गया। और जब वह चीन पहुंचा, तो वहां के सम्राट ने कहा कि मैंने हजारों विहार बनवाए; लाखों भिक्षुओं को मैं भिक्षा देता हूं रोज; बुद्ध के समस्त शास्त्रों का मैंने चीनी भाषा में अनुवाद करवाया है; लाखों प्रतियां मुफ्त बंटवाई हैं; धर्म का मैंने बड़ा प्रचार किया है; हे बोधिधर्म, इस सब से मुझे क्या लाभ होगा? मुझे क्या मिलेगा इसका पुरस्कार? इसका प्रतिफल क्या है? उसने गलत आदमी से पूछ लिया। और भिक्षु थे लाखों, जो उसकी भिक्षा पर पलते थे। वे कहते थे, तुम पर परमात्मा की बड़ी कृपा है। तुम्हारा मोक्ष सुनिश्चित है। हे सम्राट, तुम जैसा सम्राट पृथ्वी पर कभी न हुआ और न कभी होगा। तुम धर्म के परम मंगल को पाओगे। तुम पर आशीष बरस रहे हैं बुद्धों के। तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते, देवता फूल बरसाते हैं तुम पर। उसने सोचा कि बोधिधर्म भी ऐसा ही भिक्षु है। गलती हो गई। बोधिधर्म जैसे आदमी कभी-कभी होते हैं, इसलिए गलती हो जाती है। बोधिधर्म ने कहा, बंद कर बकवास! अगर पहले कुछ मिलता भी, तो अब कुछ नहीं मिलेगा। तूने मांगा कि खो दिया। सम्राट तो बेचैन हो गया। हजारों भिक्षुओं की भीड़ के सामने बोधिधर्म ने कहा कि कुछ भी नहीं मिलेगा। फिर भी उसने सोचा कि कुछ गलती हो गई समझने में बोधिधर्म के या मेरे। उसने कहा, इतना मैंने किया, फल कुछ भी नहीं! बोधिधर्म ने कहा, फल की आकांक्षा पाप है। किया, भूल जा! इस बोझ को मत ढो, नहीं तो इसी बोझ से डूब मरेगा। पाप के बोझ से ही लोग नहीं डूबते, पुण्य के बोझ से भी डूब जाते हैं। बोझ डुबाता है। और पाप से तो आदमी छूटना भी चाहता है; पुण्य को तो कस कर पकड़ लेता है। यह पत्थर है तेरे गले में; इसको छोड़ दे। लेकिन सम्राट वू को यह बात पसंद न पड़ी। हमारी वासनाओं को यह बात पसंद पड़ भी नहीं सकती। इतना किया, बेकार! सम्राट वू को पसंद न पड़ी, तो बोधिधर्म ने कहा कि मैं तेरे राज्य में प्रवेश नहीं करूंगा, वापस लौट 371

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