Book Title: Tao Upnishad Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna
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ताओ उपनिषद भाग २
साधारण मनुष्य की पकड़ के बिलकुल बाहर नहीं है; जिसको असाधारण होने का भ्रम है, उसकी पकड़ के बाहर है। साधारण आदमी बड़ी दुर्लभ बात है। उसे खोजना बहुत मुश्किल है। असाधारण तो सभी हैं। एक-एक से पूछ कर देख लें, सभी असाधारण हैं। ऐसा आदमी कभी आपको मिला है, जो साधारण हो?
और अगर कभी कोई कहता भी है कि मैं साधारण हूं, तो वह कहता है, मैं अति साधारण हूं। अति साधारण का मतलब : साधारणों में भी मैं असाधारण हूं। हर आदमी अपने को असाधारण मान कर चलता है। साधारण कोई भी नहीं अपने को मान कर चलता।
लाओत्से कहता है, साधारण हो जाओ और तुम पा लोगे। तुम्हारा असाधारण होना ही तुम्हारी बाधा है।
असाधारणता क्या है हमारी? कोई आदमी धन ज्यादा कमा लेता है, तो असाधारण है। कोई आदमी ज्ञान ज्यादा इकट्ठा कर लेता है, तो असाधारण है। कोई आदमी त्याम ज्यादा कर लेता है, तो असाधारण है। कभी आपने खयाल किया, हमारी असाधारणता हमारे करने की मात्रा पर निर्भर होती है। तो जो जितना कर लेता है, उतना असाधारण हो जाता है।
__ और लाओत्से कहता है, न करने से पाया जाएगा वह सत्य। इसलिए असाधारण तो उसे कभी नहीं पा सकते; . क्योंकि असाधारण का अर्थ ही होता है, जिन्होंने कुछ किया है। साधारण उसे पा लेंगे, जिन्होंने कुछ भी नहीं किया है। लेकिन साधारण आदमी खोजना अति दुर्लभ है। यह बड़े मजे की बात है, सबसे साधारण धारणा यही है कि प्रत्येक आदमी अपने को असाधारण मानता है। कहे, न कहे; बताए, न बताए; अपने भीतर हर आदमी मानता है, वही केंद्र है सारे विश्व का। हर आदमी अपने को मानता है कि वह अपवाद है, नियम नहीं। हर आदमी अपने को गौरीशंकर का शिखर मानता है; और इस शिखर को सिद्ध करने में सक्रिय रहता है। जो सिद्ध नहीं कर पाते हैं, उन्हें बड़ी पीड़ा होती है, बड़ी ग्लानि, बड़ी दीनता होती है।
एक मित्र ने पूछा है कि आत्महीनता, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स क्यों पैदा होता है?
इसीलिए पैदा होता है, आप मानते तो हैं अपने को गौरीशंकर और सिद्ध नहीं कर पाते। आप मानते तो हैं कि जगत के केंद्र हैं, लेकिन सिद्ध नहीं कर पाते। फिर हीनता पैदा होती है। हीनता पैदा ही उन्हें होती है, जिनके मन में श्रेष्ठ होने का भाव है। उलटा लगेगा; लेकिन हमने जीवन को ऐसा ही उलटा कर लिया है कि उसमें सीधी-साफ बातें कहनी हों, तो उलटी मालूम होती हैं। जिस आदमी को भी श्रेष्ठ होने का भाव है, उसे हीनता का बोध पैदा हो जाएगा। उसे लगेगा मैं कुछ भी नहीं है, क्योंकि मानता है वह इतना अपने को और उतना सिद्ध नहीं कर पाता है। फिर पीड़ा पकड़ती है मन को कि मैं कुछ भी न कर पाया।
एक मित्र ने पूछा है कि मुझमें आत्मविश्वास नहीं है, वह कँसे पँदा हो?
पैदा करना ही मत। आत्म-विश्वास पैदा करने का मतलब ही क्या होता है? मैं कुछ हूं! मैं कुछ करके दिखा दूंगा! आत्म-विश्वास का मतलब यह होता है कि मैं साधारण नहीं हूं, असाधारण हूं। और हूं ही नहीं, सिद्ध कर सकता हूं। सभी पागल आत्म-विश्वासी होते हैं। पागलों के आत्म-विश्वास को डिगाना बहुत मुश्किल है। अगर एक पागल अपने को नेपोलियन मानता है, तो सारी दुनिया भी उसको हिला नहीं सकती कि तुम नेपोलियन नहीं हो। उसका भरोसा अपने पर पक्का है।
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