Book Title: Tao Upnishad Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 372
________________ ताओ उपनिषद भाग २ 362 आप तुलना नहीं कर सकते। और किसी से आप पूछ नहीं सकते कि यह सही है या गलत है। अगर आप बाजार में जाएं और कोई चीज आपको पीली दिखाई पड़ती हो और किसी को पीली न दिखाई पड़ती हो, तो आपको शक हो सकता है कि शायद आपको पीलिया हो गया हो। लेकिन भीतर की दुनिया में आप अकेले हैं; वहां धारणा बड़ी खतरनाक है। क्योंकि दूसरे से कोई तुलना नहीं हो सकती। वहां दूसरा कुछ भी नहीं कह सकता कि आपको क्या दिखाई पड़ता है और क्या दिखाई नहीं पड़ता। वहां आप निपट अकेले हैं। उस निपट अकेलेपन के कारण रत्ती - रत्ती धारणा को छोड़ कर ही भीतर जाना जरूरी है। नहीं तो वहां फिर भ्रांति को सुधारने का कोई भी उपाय नहीं है। बाहर के जगत में तो हम दूसरों से भी तौल कर सकते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को लेकर शराबघर में गया है। दोनों शराब पीते हैं और मुल्ला ज्ञान भी देता जाता है । अपने बेटे से कहता है कि हमेशा रुक जाना चाहिए शराब पीने से । सीमा तुझे बता देता हूं। इस सीमा के आगे कभी मत बढ़ना। देख, उस टेबल पर दो आदमी बैठे हुए हैं। जब वे चार दिखाई पड़ने लगें, तब रुक जाना चाहिए। उसके बेटे ने टेबल की तरफ देखा और उसने कहा, वहां एक ही बैठा हुआ है ! नसरुद्दीन आगे खुद ही जा चुके हैं, एक उन्हें दो दिखाई पड़ने लगा है। और वे बेटे को समझा रहे हैं कि जब दो चार दिखाई पड़ने लगें। लेकिन यहां उपाय है कि बेटा देख सका कि एक ही आदमी है वहां। बाहर के जगत में उपाय है कि हम तौल सकें, इसलिए विज्ञान नियम निर्धारित कर पाता है। धर्म नियम निर्धारित नहीं कर पाता, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अकेला प्रवेश करता है। और ऐसे व्यक्ति बहुत कम हैं इस पृथ्वी पर, जो धारणाशून्य होकर प्रवेश करते हैं। कभी कोई बुद्ध, कभी कोई लाओत्से, कभी मुश्किल से कोई आदमी धारणाशून्य होकर प्रवेश करता है। नहीं तो हिंदू की तरह ही आप भीतर चले जाते हैं, मुसलमान की तरह भीतर चले जाते हैं, ईसाई की तरह भीतर चले जाते हैं। आप धारणाओं का सारा बोझ लेकर भीतर चले जाते हैं। सारी शिक्षाएं और सारा दृष्टिकोण साथ लेकर चले जाते हैं। फिर आप भीतर वही देख लेते हैं, जो आपकी दृष्टि ने मान रखा है। भीतर भ्रम के बड़े उपाय हैं; क्योंकि दूसरा वहां कोई भी नहीं है।' इसलिए लाओत्से जोर देकर बार-बार कहता है : सहज स्व । सहज से उसका मतलब है : धारणारहित देखा गया, धारणाशून्य देखा गया। लाओत्से तो कहेगा, तुम यह भी मान कर भीतर मत जाना कि वहां आत्मा है। इसको भी मान कर मत जाना। क्योंकि यह मानना भी एक धारणा है। बुद्ध से कोई पूछता है आकर कि आत्मा है या नहीं? तो बुद्ध कहते हैं, तुम जाओ भीतर और जानो। अगर मैं कहूं नहीं है, तो भी गलत होगा; अगर मैं कहूं है, तो भी गलत होगा । उस आदमी ने कहा, दोनों कैसे गलत हो सकते हैं ? दो में से एक गलत हो सकता है। दोनों कैसे गलत हो सकते हैं? बुद्ध ने कहा, दोनों ही गलत होंगे। क्योंकि दोनों ही हालत में मैं तुम्हें एक धारणा दे दूंगा अनुभव के पहले, एक दृष्टि दे दूंगा। अगर तुम मान कर भीतर गए कि आत्मा है, और आत्मा न भी हो, तो तुम अनुभव कर लोगे। और अगर तुम मान कर ही चले कि आत्मा नहीं है, तो आत्मा हो भी तो तुम्हें उसकी कोई खबर न मिलेगी । आदमी अपनी ही धारणाओं में बंध जाता है; धारणाओं के कैप्सूल में बिलकुल बंद हो जाता है । फिर बाहर निकलने का उपाय नहीं रह जाता। बड़े से बड़ा कारागृह धारणाओं का कारागृह है। तो लाओत्से तो कहेगा, बुद्ध कहेंगे कि तुम यह भी मत मानो कि आत्मा है। तुम मानो ही मत कुछ। तुम सिर्फ भीतर जाओ; जो हो, उसे जान लेना; जो मिले, उसे देख लेना। उस अपरिचित को तुम पहले से परिचित मत बनाओ। और उस अज्ञात को तुम ज्ञान आवरण मत दो। और जो अनजाना है, उसे अनजाना ही रहने दो। इसके पहले कि तुम जानो, उसके संबंध में कुछ भी जानना उचित नहीं है। सहज स्व का यह अर्थ है।

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