Book Title: Tao Upnishad Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 343
________________ 333 33/ ओत्से को समझने में जो बड़ी से बड़ी कठिनाई है, वह हमारे चिंतन की कोटियां हैं। चिंतन का जो ढंग हमारा है, लाओत्से को उसी ढंग से पकड़ना बहुत मुश्किल होगा। और लाओत्से का चिंतन का ढंग ही विपरीत है; उसका तर्क ही विपरीत है। वह दूसरे ही आयाम से जीवन को देखता है। इसलिए आप जो प्रश्न भी पूछते हैं, वे लाओत्से से कम संबंधित और आपसे ही ज्यादा संबंधित होते हैं। लाओत्से की दृष्टि को समझना हो, तो अपनी दृष्टि को थोड़ा छोड़ कर ही देखना पड़ेगा। अगर आप अपनी दृष्टि, अपने शब्द और अपने बंधे हुए खयालों से ही लाओत्से को देखेंगे, तो यह निर्णय करना तो बहुत मुश्किल है कि लाओत्से सही है या गलत, आप समझ भी नहीं पाएंगे कि वह क्या कह रहा है। आपके चिंतन का जो ढंग है, उसे एक तरफ रखें, तो लाओत्से को समझ पाएंगे। फिर निर्णय आपके हाथ में है कि आप तय करें कि वह गलत है या सही। लेकिन समझने के पहले ही तय करना उचित नहीं है। और समझने में अड़चन है। और वह अड़चन यह है कि हमारा एक ढांचा है देखने का; लाओत्से उस ढांचे के बिलकुल प्रतिकूल है। जैसे हम हाथ से छूते हों और वह आंख से देखता हो; या जैसे हम आंख से देखते हों और वह कान से सुनता हो; और सारी भाषा अलग हो । जैसे मैंने कल कहा कि अगर चेतना बढ़ेगी, तो दूसरी तरफ अचेतना बढ़ जाएगी, मूर्च्छा बढ़ जाएगी। चेतना का जो भी अर्थ हमें पता है वह महावीर, कृष्ण और बुद्ध से हमें मिला है। वह अर्थ लाओत्से के साथ काम नहीं पड़ेगा। तो आपके मन में जो प्रश्न उठ आते हैं, वे प्रश्न आपके नहीं हैं। चिंतन की एक धारा आपके मन में है। तब हमें बड़ी घबड़ाहट होती है, इसका क्या मतलब हुआ ? इसका मतलब हुआ कि अगर एक महावीर चेतना को उपलब्ध हो जाएगा, परम चेतना को, तो महावीर के कारण एक व्यक्ति को परम अचेतना में पड़ना पड़ेगा! तो यह तो हिंसा हो गई। और महावीर को ऐसा करते हम सोच भी नहीं सकते कि उनके कारण कोई अचेतना में पड़ जाए। और यह बात अजीब सी लगती है कि कोई आदमी की चेतना बढ़े, तो किसी दूसरे को अकारण ही अचेतना में पड़ना पड़े, जिसका कोई संबंध नहीं है। लेकिन अगर हम लाओत्से से पूछें, तो लाओत्से नहीं कहेगा कि महावीर की चेतना बढ़ गई । लाओत्से कहेगा, महावीर चेतना-अचेतना दोनों के पार हो गए। और जब कोई दोनों के पार हो जाता है, तो उसका कोई परिणाम, कोई रेखा जगत पर नहीं छूटती है। लाओत्से से हम पूछें, तो वह यह नहीं कहेगा कि कृष्ण जो हैं, परम चैतन्य पुरुष हैं। अगर वे परम चैतन्य पुरुष हैं, तो परम मूच्छित पुरुष उनको संतुलित करेगा ही। लाओत्से के हिसाब में वे चेतना-अचेतना के पार गए पुरुष हैं, अतिक्रमण कर गए, द्वंद्व के बाहर हो गए, द्वंद्वातीत हो गए। तब उनके कारण इस जगत में कहीं भी कोई रेखा नहीं पड़ेगी।


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