Book Title: Tao Upnishad Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 367
________________ द्धिमत्ता और ज्ञान, मानवता और न्याय, चालाकी और उपयोगिता, इन सब को छोड़ देना नकारात्मक है। इनका छोड़ना जरूरी है, लेकिन काफी नहीं; आवश्यक है, लेकिन पर्याप्त नहीं। विधायक को भी प्रकट करना होगा, पाजिटिव को भी प्रकट करना होगा। जैसे कोई बीमारियों को छोड़ दे, इतना स्वस्थ होने के लिए काफी नहीं है; जरूरी है। बीमारियां न हों, तो स्वस्थ होना आसान है। बीमारियां हों, तो स्वस्थ होना मुश्किल है। लेकिन बीमारियों का न होना ही स्वास्थ्य नहीं है। स्वास्थ्य की अपनी विधायक स्थिति है। जैसे बीमारी में एक पीड़ा है, वैसे स्वास्थ्य में एक आनंद है। तो जब बीमारियां न हों, तो आप दुख के तो बाहर हो जाते हैं, लेकिन आनंद में प्रविष्ट नहीं हो जाते। और दुख के बाहर हो जाना आनंद के साथ एक हो जाना नहीं है। ये दोनों पर्यायवाची नहीं हैं। आनंद एक आंतरिक कल्याण और मंगल और एक आंतरिक प्रफुल्लता का, अकारण प्रफुल्लता का अनावरण है। लाओत्से ने जिन तीन बातों को कहा, वे बीमारियों की तरह हैं। सब बीमारियां बाहर से आती हैं, और स्वास्थ्य भीतर से। बीमारियां आक्रमण हैं और स्वास्थ्य स्वभाव है। हमारे शब्द स्वास्थ्य का भी मतलब यही होता है। स्वास्थ्य का अर्थ होता है : स्वयं में स्थित हो जाना। तंदुरुस्ती में वह बात नहीं है और न अंग्रेजी के हेल्थ में वह बात है। स्वास्थ्य एक आध्यात्मिक शब्द भी है। उसका अर्थ है स्वयं में ठहर जाना। इसे थोड़ा हम समझ लें, तो इस सूत्र में प्रवेश बहुत आसान हो जाए। जब बीमारी होती है, तो आप अपने से बाहर चले जाते हैं। पैर में कांटा गड़ता है, तो सारी चेतना पैर के कांटे के पास घूमने लगती है। सिर में दर्द होता है, तो चेतना सिर के पास घूमने लगती है। शरीर में पीड़ा होती है, तो चेतना शरीर के आस-पास मंडराती है। जहां दुख होता है, जहां पीड़ा होती है, वहां चेतना को तत्काल दौड़ कर जाना पड़ता है। इसलिए बीमार आदमी को समझना बहुत मुश्किल है कि वह शरीर नहीं है। बीमार आदमी को यह समझना बहुत मुश्किल है कि वह आत्मा है, शरीर नहीं। और अगर आप भी न समझ पाते हों, तो जानना कि आप बीमार हैं। इसलिए जो जितना बीमार होता है, उतना कम आत्मवादी रह जाता है, शरीरवादी हो जाता है। क्योंकि शरीर का ही पता चलता है रुग्णता में, आत्मा का कोई पता नहीं चलता। रुग्णता में सारा ध्यान ही रोग पर अटक जाता है, पीड़ा पर अटक जाता है। और रोगी मन की एक ही इच्छा होती है कि किसी तरह पीड़ा से छुटकारा हो जाए। आनंद मिले, ऐसी आकांक्षा नहीं होती; पीड़ा से छुटकारा हो जाए, इतना भी बहुत मालूम पड़ता है। लेकिन पीड़ा से छूट जाना आनंदित हो जाना नहीं है। जैसे पीड़ा बाहर ले जाती है, ऐसे आनंद भीतर ले जाता है। एक आदमी अपने मकान के बाहर न जाए, रास्तों पर न भटके, दूर पृथ्वी पर न घूमे; लेकिन इससे आप यह मत समझ लेना कि वह भीतर प्रविष्ट हो गया। वह अपने द्वार पर भी खड़ा रह जा सकता है। जो आदमी द्वार पर खड़ा है, 357

Loading...

Page Navigation
1 ... 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412