Book Title: Tao Upnishad Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 355
________________ सिद्धांत व आचरण में नहीं, सरल सहज स्वभाव में जीना 345 लाओत्से का अर्थ केवल इतना ही है कि जो है, उसे सीधा देख लो; उसके विपरीत सिद्धांत मत खड़ा करो। हम सबकी आदत क्या है? जो है, उसकी तो हम फिक्र नहीं करते; तत्काल उसके विपरीत सिद्धांत खड़ा करते हैं। और विपरीत सिद्धांत हमारा उपद्रव बन जाता है। भीतर हिंसा है, तो हम तत्काल अहिंसा का सिद्धांत खड़ा कर लेते हैं। हिंसक आदमी अहिंसा परमो धर्मः लिख कर अपनी तख्ती लगा लेता है अपने मकान पर। भीतर हिंसा है, वह कहता है, अहिंसा सिद्धांत है। वह कहता है, आज अहिंसक नहीं हूं, कल अहिंसक हो जाऊंगा, परसों अहिंसक हो जाऊंगा। कोशिश तो कर रहा हूं, अहिंसा को मानता भी हूं । महावीर के चरणों में जाता हूं, बुद्ध को मानता हूं, अहिंसा में मेरी बड़ी आस्था है। कमजोर हूं, अभी हिंसा है। लेकिन सिद्धांत मेरे पास है; आज नहीं कल अहिंसक हो जाऊंगा । आपको पता है, क्या कर रहा है यह आदमी ? हिंसा का जो कोढ़ है, उसको देखने से बचने की तरकीब निकाल रहा है। हिंसा भारी है। और अगर यह अपनी हिंसा को देखे, तो एक दिन भी उस हिंसा में खड़ा हुआ नहीं रह सकता। जैसे घर में आग लग गई हो और पता चल जाए कि आग लग गई है, तो आप फिर एक क्षण रुक नहीं सकते। फिर आप यह भी नहीं पूछने रुकेंगे कि मैं किस गुरु से रास्ता पूछूं बाहर निकलने का ? कि सदगुरु कौन है, उसकी ही मान कर निकलूंगा ! कि खिड़की से निकलूं, कि दरवाजे से निकलूं, कि छलांग लगाऊं, कि रस्सी लटकाऊं, कि सीढ़ी लगाऊं ? आप कुछ न पूछेंगे। इतनी फुर्सत न होगी, इतना समय भी न होगा। सच तो यह है कि आपको पता ही न चलेगा, कब आप बाहर निकल गए हैं। बाहर निकल कर ही पता चलेगा कि मैं बाहर आ गया हूं। तभी आप श्वास लेंगे और विचार शुरू करेंगे । अगर किसी व्यक्ति को अपने भीतर हिंसा का अपने कोढ़ का ऐसा ही बोध हो जाए, तो वह यह नहीं कह सकता कि कल निकलूंगा। मकान में आग लगी है, तब आप यह नहीं कह सकते कि कल निकलेंगे, परसों निकलेंगे, अभी सोचने का मौका चाहिए, और फिर जल्दी क्या है, अभी उम्र तो पड़ी है। ये सब बातें नहीं हैं। आग लगी है, तो आदमी निकल जाता है। लेकिन जिंदगी की जो आग है, हमारी बचने की एक तरकीब है गहरी से गहरी : क्रिएट दि अपोजिट, विपरीत को पैदा कर लो, उसको सिद्धांत बना लो। भीतर के कोढ़ पर नजर मत रखो, सिद्धांत पर नजर रखो : अहिंसा परम धर्म है ! और सोचो निरंतर कि आज नहीं कल अहिंसक हो जाएंगे। इस जन्म में नहीं, तो अगले जन्म में हो जाएंगे। कोशिश जारी रखेंगे; और धीरे-धीरे, धीरे-धीरे अहिंसा आ जाएगी, हिंसा चली जाएगी। : यह अहिंसा कभी भी न आएगी। यह पोस्टपोनमेंट है। यह तरकीब है। यह स्थगित करना है । और मजे की बात यह है कि हिंसा जारी रहेगी। आपके भीतर दो तल हो जाएंगे आपका असली आदमी हिंसक बना रहेगा, आपका नकली आदमी अहिंसक हो जाएगा। और नकली आदमी नकली अहिंसा के इंतजाम कर लेगा - रात खाना नहीं खाएगा; दिन में पानी छान कर पी लेगा । मैं यह नहीं कह रहा हूं कि पानी छान कर मत पीएं। हाइजिनिक है। लेकिन अहिंसा मत समझें। अच्छा है; लेकिन अहिंसा मत समझें । अहिंसा इतनी सस्ती बात होती कि आप एक कपड़ा खरीद लाए और पानी छान लिया ! और कितनी मौज से जब लोग पानी छान कर पीते हैं, तो वे सोचते हैं, स्वर्ग का बिलकुल पक्का हो गया, अब मोक्ष कोई बाधा न रही। दिखा देंगे यह कपड़ा, कि देखो पानी छान कर पीया था, और रात कभी खाना नहीं खाया। मैं देखता हूं। कभी-कभी ऐसे घरों में ठहरने का मुझे मौका मिलता है। भीतर अंधेरा हो गया, तो बाहर बैठ जाते हैं। सूरज तो डूब रहा है, डूबने के करीब है, या डूब भी गया है। बाहर बैठ जाते हैं इस भरोसे में कि अभी सूरज नहीं डूबा है। जल्दी खाना खा रहे हैं कि रात... । इनका खाना खाना तक हिंसा है। इतनी तेजी से खा रहे हैं कि वह भी एक प्रेमपूर्ण, आनंदपूर्ण कृत्य नहीं है । वह भी हिंसा है। लेकिन वे जल्दी खाए चले जा रहे हैं। रात हुई जा रही है; रात वे खाना नहीं खाएंगे ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412