Book Title: Tao Upnishad Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 354
________________ ताओ उपनिषद भाग २ 344 दो-चार शब्दों को हम देखें, जिनके नीचे हमारे गहरे असत्य छिपे हुए हैं। न्याय एक शब्द है, जिसके अंतर्गत हम न मालूम कितना पाप करते हैं। एक बात, अभी तक हम उन सारे लोगों को, जो भी संपत्ति की व्यवस्था के विपरीत कुछ करते रहे, अपराधी मानते रहे हैं। लेकिन संपत्ति की पूरी व्यवस्था भी अपराधी हो सकती है, यह हमारे खयाल में नहीं आता। पूरी व्यवस्था ही अपराधी हो सकती है, अगर यह खयाल में आ जाए, तो फिर जिनको हम अपराधी ठहराते हैं, वे अपराधी न रह जाएंगे। एक छोटी क्लास है स्कूल की, प्राइमरी स्कूल की । और एक बच्चा अपने पड़ोसी बच्चे की कलम उठा कर अपने खीसे में रख लेता है। यह चोरी है। प्राइमरी स्कूल के शिक्षक से लेकर दिल्ली के प्रेसीडेंट तक सभी उसके खिलाफ हो जाएंगे। लेकिन उस बच्चे की तरफ से हम समझने की कोशिश करें। सब बच्चों के पास रंगीन कलमें हैं; उसके पास नहीं है। रंग उसे आकर्षित करते हैं; सभी बच्चों को करते हैं। वह भी एक रंगीन कलम अपने खीसे में रखना चाहता है, जैसे दूसरे बच्चे रखते हैं। और बूढ़े तक जब चीजें रख कर अकड़ते हैं, तो छोटे बच्चे अगर रख कर अकड़ना चाहें, तो बुराई क्या है ? और जब आपके पास नई कार आती है, नए रंग की, तो आपकी चाल बदल जाती है, और जवानी लौट आती है, उम्र दस साल कम हो जाती है। यह छोटा सा बच्चा एक कलम को खीसे में रख कर यह भी अकड़ सके, इसमें ऐसा एतराज क्या है? लेकिन यह बच्चा अपराधी है। दूसरे बच्चों के पास कलमें क्यों हैं और इस बच्चे के पास कलम क्यों नहीं है? अगर इसके हम पीछे यात्रा करना शुरू करें, तो हम पाएंगे, दूसरे बच्चों के बाप इस बच्चे के बाप से ज्यादा बेईमान सिद्ध हुए, ज्यादा चालाक सिद्ध हुए, ज्यादा होशियार सिद्ध हुए। अगर हम इस कलम का पूरा इतिहास खोजने जाएं, तो हम न मालूम कितने पाप और न मालूम कितने अपराध इस कलम तक पाएंगे, जो इसके पीछे छिपे हैं ! लेकिन उनसे कोई संबंध नहीं है। इस बच्चे ने कलम उठा ली, क्योंकि रंग उसे भी पसंद है। जो कलम दूसरे के पास है, वह उसे भी पसंद है। वह भी इस कलम को रख कर शान से चलना चाहता है। इस बच्चे के इस भाव में कहीं भी कुछ पाप नहीं है। ऐसा होना ही चाहिए। यह स्वाभाविक है। इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं मालूम पड़ता। ऐसा न हो, तो अस्वाभाविक है। लेकिन यह बच्चा अपराधी है। और हमारे सारे अपराध ऐसे ही अपराध हैं। फिर इस पर न्याय की व्यवस्था है। समाज एक तरफ अपराध पैदा करवाए चला जाता है, दूसरी तरफ से न्याय बिठाए चला जाता है। इस न्याय से अपराध मिटते नहीं, मिट नहीं सकते। क्योंकि न्याय खुद ही उनको छिपाने और ढांकने की व्यवस्था है। अपराध बढ़ते चले जाते हैं; न्याय की धारणा बढ़ती चली जाती है। लोग न्याय का नारा लगाए चले जाते हैं और अपराध गहरे होते चले जाते हैं। लाओत्से कहता है, इन थोथे शब्दों को हटाओ; और जीवन की जो सच्चाई है, सीधी-साफ, उसे देखो । हटाओ न्याय की धारणा । अन्याय है, तो अन्याय को देखो, ठीक सीधा । छिपाओ मत। वस्त्रों में ढांको मत। और अगर अन्याय हमारे सबके सामने प्रकट हो जाए, तो शायद अन्याय बच नहीं सकता। लेकिन अन्याय दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए बच सकता है। बीमारी अगर छिपी हो, तो बच सकती है। अगर उघड़ आए, तो बच नहीं सकती। हम उसे तोड़ ही फेंकेंगे, हटा ही डालेंगे। जो भी अन्याय अन्याय की तरह साफ हो जाए, वह टिकेगा नहीं । आदमी उसे बर्दाश्त नहीं कर सकेगा। लेकिन अन्याय के ऊपर फूल लगा दो, रंगीन कागज चिपका दो, इत्र छिड़क दो, फिर अन्याय बच जाएगा। • और हम सब कुशल हो गए हैं। समाज के कोढ़ पर रंगीन चीजें चिपकाने में हम कुशल हो गए हैं। अब धीरे-धीरे भीतर सब कोढ़ हो गया है; सिर्फ ऊपर रंगीन चीजें रह गई हैं। कभी यहां से उखड़ जाती हैं, कभी वहां से। थोड़ी दुर्गंध आती है। फिर यहां से चिपका देते हैं; फिर वहां से बंद कर देते हैं। भीतर एक लाश रह गई है सड़ी हुई।

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