Book Title: Tao Upnishad Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 310
________________ ताओ उपनिषद भाग २ तो उसके बुलाने से क्यों राजी नहीं हूं? और अगर उसका दिया हुआ जीवन अच्छा था, तो उसकी दी हुई मौत बुरी कैसे हो सकती है? एक ही स्रोत से सब कुछ जन्म रहा है। उसी स्रोत से खिलते हैं फूल और उसी स्रोत से लगते हैं कांटे। अगर उसके फूल भले हैं, तो उसके कांटे बुरे क्यों होंगे? और लाओत्से यह कह रहा है कि कांटे भी उसी के हैं, फूल भी उसी के हैं, इसलिए सब ठीक है। यह ‘सब ठीक' वस्तुओं के प्रति वक्तव्य नहीं, स्वयं और शाश्वत के साथ जो संगीत सध गया है, उसकी खबर है। यह कोई सांत्वना नहीं है। क्योंकि सांत्वना का तो अर्थ ही यही होता है कि सब गलत है, और हम अपने को समझा रहे हैं कि सब ठीक है। जो ठीक नहीं है, उसको हम समझा रहे हैं कि सब ठीक है, तब सांत्वना है। लेकिन अगर ऐसी ही प्रतीति है कि सब ठीक है, तो फिर सांत्वना नहीं है। धर्म का निकृष्ट रूप सांत्वना है, कंसोलेशन है। और धर्म का श्रेष्ठतम रूप संगीत है। व्यक्ति और विराट के बीच जो संगीत है, वह धर्म का श्रेष्ठतम रूप है। व्यक्ति और विराट के बीच जो संघर्ष है, उसमें व्यक्ति की जो पराजय है, उस पराजय में जो सांत्वना खोजी जा रही है, वह धर्म का निकृष्टतम रूप है। यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह इस शाश्वत नियम को सांत्वना बनाता है या सत्या इसे केवल एक मलहम-पट्टी समझता है कि घाव को भीतर छिपा लिया, या एक अनंत संगीत की संभावना-यह व्यक्ति पर निर्भर है। यह आप पर निर्भर है। अधिक लोग सांत्वना में ही जीते हैं। इसीलिए आदमी दुख में धर्म की तलाश करता है; क्योंकि दुख में सांत्वना की जरूरत है। दुखी आदमी के पैर मंदिर की तरफ बढ़ने लगते हैं। मार्क्स ने तब तो ठीक ही कहा है कि धर्म दुखी आदमी की आह है और धर्म जनता के लिए अफीम है। ठीक ही कहा है। धर्म का जो निकृष्टतम रूप है, वह यही है। और यही बड़ा रूप है। सौ में निन्यानबे लोग इसी भांति धार्मिक हैं। और आश्चर्य नहीं है कि मार्क्स को सौवां आदमी न मिला हो। वह आसान भी नहीं है सौवां आदमी मिलना। निन्यानबे आदमी जगह-जगह मौजूद हैं। अगर मार्क्स को ऐसा लगा हो कि धर्म अफीम का एक नशा है; तो कुछ गलत नहीं लगा। लेकिन इसमें निंदा भी क्या है ? चिकित्सक भी, अगर आप बहुत दर्द में हों, तो नशा देकर आपके दर्द को भुलाता है। माफिया देता है। दर्द के साथ एक मजा है कि उसका पता चले, तो ही होता है। पता ही न चले, तो कहां है? दर्द के साथ हम दो काम कर सकते हैं : दर्द को मिटाने का वह धर्म की श्रेष्ठतम संभावना है; दर्द को भुलाने का-वह धर्म की निकृष्टतम संभावना है। जब दुखी आदमी धर्म की तरफ बढ़ता है, तो वह सांत्वना के लिए जा रहा है। जब सुखी आदमी धर्म की तरफ बढ़ता है, तब वह संगीत के लिए जा रहा है। इसलिए मैं कहता हूं, जब आप सुख से भरे हों, तब धर्म की तरफ बढ़ना। बहुत कठिन है, बहुत कठिन है। . दुख से जब भरे होते हैं, तब बहुत सरल है। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि दुखी, दीन, दरिद्र, गरीब समाज धार्मिक नहीं हो पाते। उनके लिए धर्म अफीम ही है। समृद्ध, सुखी, संपन्न समाज ही धार्मिक हो पाते हैं। क्योंकि सुख जब व्यर्थ मालूम होता है, तब ठीक और गैर-ठीक की सब धारणाएं गिर जाती हैं। जब सुख ही व्यर्थ मालूम होने लगता है, तो फिर क्या ठीक है और क्या गलत है? जब तक दुख गलत मालूम होता है, तब तक हम ज्यादा से ज्यादा सांत्वना खोज सकते हैं। यह व्यक्ति पर निर्भर है कि आप धर्म को सांत्वना बनाते हैं। अगर आप धर्म को सांत्वना बनाते हैं, तो धर्म आपके लिए एक ड्रग, अल्कोहल, इससे ज्यादा नहीं है। नीत्शे ने कहा है, पश्चिम में दो मादक द्रव्य हैं : क्रिश्चियनिटी और अल्कोहल, शराब और ईसाइयत। वह ठीक कहा है। अधिक लोग शराब और धर्म से एक ही काम लेते हैं। जो लोग शराब से ले सकते हैं, वे धर्म की फिक्र नहीं करते। जो शराब से लेने में डरते हैं, वे धर्म से वही काम ले लेते हैं। इसलिए जो धार्मिक, 300

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