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ताओ उपनिषद भाग २
जिस पर पिकासो ने तस्वीर बनाई होगी, उसकी करोड़ों कीमत हो सकती है। और जिस पर आपने तस्वीर बनाई होगी, उसको कोई रद्दी में भी लेने को तैयार नहीं होगा। अब क्या करिएगा? और ये दोनों कागज थे, अभी क्षण भर पहले दोनों की कीमत बराबर थी। ये दोनों कागज के टुकड़े थे, बराबर कीमत के थे, एक से खाली थे-अपने स्वभाव में थे। अब इन पर व्यक्तित्व आ गया। पिकासो ने जो बनाया, तो उसके व्यक्तित्व की कीमत है। आपने जो बनाया, तो आपका व्यक्तित्व उतरेगा। मैंने जो बनाया, तो मेरा व्यक्तित्व उतरेगा। उसके अनुसार कीमत होगी। कागज अलग-अलग हो गए अब।
बुद्ध और कृष्ण और लाओत्से और जीसस भीतर तो कोरे कागज हैं। लेकिन जैसे ही हम उनको देखते हैं बाहर से-तस्वीर बन गई। वह तस्वीर उनका व्यक्तित्व है। वह अस्तित्व नहीं है, व्यक्तित्व है। यह शब्द व्यक्तित्व बड़ा अच्छा है। इसका मतलब है कि जो छिपा है, वह नहीं, बल्कि माध्यम से जो प्रकट हुआ है, वह।।
एक दीया जल रहा है लालटेन के भीतर। थोड़ी सी रोशनी बाहर आ रही है। कांच पर धुआं जम गया है। दूसरी लालटेन है, दीया जल रहा है, कांच साफ है; काफी रोशनी बाहर आ रही है। दोनों के भीतर एक सी रोशनी है। लेकिन दोनों के कांचों में बड़ा फर्क है। व्यक्तित्व अलग हैं। व्यक्तित्व, भीतर से जो आ रहा है, उसे गंदा भी कर देते हैं, स्वच्छ भी कर देते हैं।
अगर कबीर बोलेंगे, तो बोली जुलाहे की होने वाली है। इसलिए कबीर के सब प्रतीक जुलाहे के प्रतीक हैं। जुलाहे वे थे; कपड़ा जिंदगी भर बुनते रहे। तो वे कहते हैं : झीनी-झीनी बुन दीन्ही रे चदरिया। बुद्ध नहीं कह सकते यह वक्तव्य। कभी बाप-दादे ने चदरिया बुनी नहीं। कोई संबंध नहीं चादर बुनने का। चादर बुनने का खयाल भी नहीं आ सकता, कि झीनी-झीनी बुन दी। कबीर को आता है; कबीर जुलाहे हैं। जिंदगी चादर बुनने में बीती है।
तो कबीर जब बोलते हैं तो ऐसा लगता है कि खोपड़ी पर लट्ठ मार दिया। ग्रामीण प्रखरता है वक्तव्य में। बुद्ध लट्ठ भी मारें, तो ऐसा लगेगा, फूल मारा। एक शाही अभिजात्य है। वह व्यक्तित्व का हिस्सा है। इसलिए मोहम्मद या जीसस के वचनों में जो तीव्रता है, त्वरा है, वह न बुद्ध के वचनों में है, न कृष्ण के वचनों में है, न महावीर के वचनों में है। वह त्वरा नहीं है। मोहम्मद और जीसस के वचनों में जो धार है, वह इनमें से किसी के वचनों में नहीं है। उसका कारण है। ये बिलकुल अपढ़, ठेठ ग्रामीण लोग हैं। तो ग्रामीण के पास भाषा ज्यादा नहीं होती। थोड़े ही शब्द होते हैं उसके पास, लेकिन अनगढ़ होते हैं। बुद्ध और महावीर के पास जो भाषा है, वह ऐसी है जैसे कि तराश कर बनाया गया पत्थर हो-मूर्ति। मोहम्मद और जीसस के पास सीधा पत्थर है। उसमें कोई तराश वगैरह नहीं है।
__इसलिए कोई आश्चर्य नहीं है कि मोहम्मद और जीसस आम जनता के जीवन में ज्यादा दूर तक प्रवेश कर गए और बुद्ध और महावीर बहुत पीछे पड़ गए। आम जनता उनकी बात को समझ पाती है, निकट मालूम पड़ती है। बुद्ध और महावीर बहुत दूर मालूम पड़ते हैं। बहुत शिखर के उनके वचन हैं। वे वचन ऐसे हैं कि हमारे और उनके बीच बहुत फासला है।
ये व्यक्तित्व के भेद हैं। और ध्यान रहे कि अगर महावीर और बुद्ध जीसस की भाषा या मोहम्मद की भाषा हिंदुस्तान में बोलते, तो कोई उनको सुनता भी नहीं। क्योंकि जिन दिनों में उन्होंने वह भाषा बोली, उन दिनों में यह मुल्क अभिजात्य के शिखर पर था। और अगर मोहम्मद भूल करते बुद्ध की भाषा बोलने की, तो कोई सुनने वाला नहीं मिलने वाला था उनको। क्योंकि जिनके बीच वे बोल रहे थे, वे ठीक मरुस्थली, खतरनाक, खंखार लोग थे। उनके पास तलवार की धार वाली बात चाहिए थी। नहीं तो कोई मतलब न था।
__व्यक्तित्व, समय, वे सारी की सारी चीजें हमें दिखाई पड़ती हैं। भीतर का जो अस्तित्व है, वह तो दिखाई नहीं पड़ता। उसकी चिंता न करें। इतना खयाल में भर आ जाए, तो धीरे-धीरे अपने भीतर के अस्तित्व का पता लगाने में
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