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ताओ उपनिषद भाग २
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अगर मैं ही धुआं हूं, तो मेरे प्रेम का क्या अर्थ है ? और अगर मैं ही धुआं हूं, तो मेरे वचन का क्या मूल्य है ? और जब मैं ही मिट जाऊंगा, तो मेरे वचन और मेरे कृत्य, उन सब को किस तराजू पर तौलने का उपाय है ? कोई उपाय नहीं है। इसलिए कठिनाई होती है। बात कभी समझ में भी आ जाती है । किन्हीं क्षणों में लगने भी लगता है, ये सब पानी पर खींची गई लकीरें हैं। लेकिन तब भय मन को पकड़ता है; क्योंकि वह चारों तरफ जो जाल हमने फैला कर रखा है, उसका क्या होगा ? घबड़ा कर हम वापस, जैसी जिंदगी चलती है, उस ढांचे में उसे चलने देते हैं।
हर ढांचा हमारी दृष्टि पर निर्मित है। अगर हमारी दृष्टि बदलती है, तो पूरा ढांचा बदलना पड़ेगा, पूरा पैटर्न जिंदगी का बदलना पड़ेगा।
लिन यूतांग ने एक संस्मरण लिखा है। चीन से किसी मित्र ने एक जर्मन विचारक को एक छोटी सी लकड़ी की पेटी भेंट की -बहुत खूबसूरत, बहुत कलात्मक, हजारों वर्ष पुरानी । लेकिन जिसने भी उस पेटी को निर्मित किया था, उस पर एक शर्त खुदी थी कि पेटी का मुंह सूरज की तरफ ही होना चाहिए। और हजारों वर्षों में जितने लोग उस पेटी के मालिक रहे थे, उन्होंने उस शर्त को पाला था। चीनी मित्र ने कहा कि मैं यह भेंट कर रहा हूं, लेकिन एक शर्त के साथ : सूरज की तरफ इस पेटी का मुंह होना चाहिए। इसे किसी हालत में न तोड़ा जाए; यह हजारों वर्ष की वसीयत है। मित्र ने कहा, ऐसी क्या कठिनाई है, इसका हम पालन करेंगे।
लेकिन जब मित्र ने आकर अपने बैठकखाने में पेटी रखी और उसका मुंह सूरज की तरफ किया, तो पूरा बैठकखाना बेजोड़ मालूम पड़ने लगा। तो उसने बजाय पेटी को बदलने के, पूरे बैठकखाने को बदलवा दिया। खर्चीला था काम। सब फर्नीचर फिर से बनाया गया, दीवारों का रुख ठीक किया गया, दरवाजे बदले गए। लेकिन तब बैठकखाना पूरे घर में गैर-मौजूं हो गया । हिम्मतवर आदमी था, उसने पूरे घर को बदलवा कर बैठकखाने के हिसाब से बनवाया। लेकिन तब उसने पाया कि उसका घर पूरे पड़ोस से बेमौजूं हो गया। पर उसने कहा, अब तो मेरी सीमा के बाहर है मामला ।
एक छोटी सी बदलाहट चारों तरफ बदलाहट लाना शुरू कर देती है । और दृष्टि की बदलाहट छोटी बदलाहट नहीं है । दृष्टि की बदलाहट गहरी से गहरी बदलाहट है। जैसे ही दृष्टि बदलती है, आप वही आदमी नहीं रहे, जो एक क्षण पहले थे। आपका सब बदलेगा । वह घबड़ाहट कि यह सबको कैसे बदला जाएगा, आदमी को रोक लेती है । और यही साहस न हो, तो आदमी जीवन भर धर्म की बातें सुनता रहे, धार्मिक नहीं हो पाता।
लाओत्से कहता है, 'उदगम को लौट जाना विश्रांति है।'
वह जो मूल आकाश है, वह जो शून्य छिपा है भीतर — और आकाश का अर्थ शून्य है, आकाश का अर्थ है नथिंगनेस। आकाश कोई वस्तु तो नहीं है। आकाश है अस्तित्व, वस्तु नहीं । आकाश का कोई रूप तो नहीं है, आकाश में कोई ठोसपन तो नहीं है, फिर भी आकाश है, रिक्त स्थान है आकाश, अवकाश है, स्पेस है। सब कुछ उसी में होता है और मिटता है। और वह अछूता, अस्पर्शित बना रहता है।
'इसे ही अपनी नियति में वापस लौटना कहते हैं । '
लाओत्से कहता है, इस उदगम में गिर जाना, मूल स्रोत में गिर जाना या मूल स्रोत के साथ अपने को एक अनुभव कर लेना ही नियति में वापस लौटना है, स्वभाव में, प्रकृति में। वही हमारी डेस्टिनी है, वही हमारी नियति है । और जब तक कोई व्यक्ति इस मूल उदगम के साथ एक नहीं हो जाता, तब तक भटकता ही रहता है। जन्मों-जन्मों भटक सकता है। जब तक किसी ने रूप के साथ अपने को जोड़ा, आकृति के साथ अपने को जोड़ा, तब तक भटकता ही रहेगा। यह जो जन्मों की इतनी लंबी यात्रा है, यह रूप के पीछे है, आकार के पीछे है ।
'स्वयं की नियति को पुनः उपलब्ध हो जाना शाश्वत नियम को पा लेना है।'