Book Title: Syadvada Pushpakalika Author(s): Charitranandi, Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra View full book textPage 8
________________ १) इस ग्रंथ की केवल एक ही पाण्डुलिपि है। २) लेखन की दृष्टि से पाण्डुलिपि अशुद्ध है। ३) मूल ग्रंथ भी व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध है। इन समस्याओं के कारण पाठसंशोधन में कठिनाई का अनुभव हुआ । समीक्षात्मक-पाठसंपादन के अनुलेखनीय-संभावना और आंतर- संभावना के सिद्धांतों का उपयोग करके इस ग्रंथ को यथासंभव शुद्ध करने का प्रयास किया है। पाठसंशोधन के मार्गदर्शक नियम इस प्रकार है। (१) मूल पाठ की सुरक्षा को प्रधानता देना। (२) स्पष्ट रूप से प्रतीत होने वाली लेखककृत (लहिया की) अशुद्धियों का ( जैसे ह्रस्व-दीर्घ की मात्रा इ.) मूल में ही संशोधन करना । अशुद्धियों के विषय में जहां संदेह हो वहां मूल पाठ को कायम रख कर संशोधित पाठ पादटीप में देना अथवा मूल में ही वृत्ताकार कोष्टक में देना। (३) ग्रन्थगत व्याकरण संबंधि, छंद संबंधि और वाक्यरचना संबंधि अशुद्धियों के विषय में भी स्पष्ट रूप से प्रतीत होने वाली अशुद्धियों का मूल में ही संशोधन करना किंतु मूल पाठ पादटीप में देना। जहाँ संदेह हो वहां मूल पाठ को कायम रख कर संशोधित पाठ पादटीप में देना । (४) जहाँ संभव हो वहाँ मूल पाठ को सहायक सामग्री (Testimonia) का आधार ले कर शुद्ध करना। जैसे-श्लोक क्रमांक ७४ का संदर्भ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की सिद्धसेनीय टीका का आधार ले कर शुद्ध किया है। स्याद्वादपुष्पकलिका पर उपा. श्री देवचंद्रजी म. कृत 'नयचक्रसार' नामक कृति का अत्यधिक प्रभाव है, अतः उसके आधार पर बहोत सारी अशुद्धियों का परिमार्जन हो सका है। कुछ एक संदेहास्पद स्थल का अर्थघटन भी सुकर हुआ है। (५) चूंकि ग्रंथ अर्वाचीन है अतः अनुलेखनीय - संभावना और आंतर-संभावना के सिद्धांतों का उपयोग करके पाठ संशोधन तथा पाठसंस्करण करना अनिवार्य समझना । प्रथम परिशिष्ट में मूल ग्रंथ के साथ विषय के अनुरूप शीर्षक दिये है वे ला. प्रति में है, संप्रति में नहीं है। संभवतः सं प्रति में टीका होने से शीर्षक देना आवश्यक नहीं समझा होगा। दूसरे परिशिष्ट में स्याद्वादपुष्पकलिका की मूल कारिकाओं का पदानुक्रम है। तीसरे परिशिष्ट में स्याद्वादपुष्पकलिका की व्याख्या में उद्धृत शास्त्रपाठों का संकलन है। चतुर्थ परिशिष्ट में स्याद्वादपुष्पकलिका में वर्णित ग्यारह द्वारों के विषय कोष्टकाकार में प्रस्तुत किये है। द्रव्यानुयोग की परिभाषा स्पष्ट करने हेतु पांचवे परिशिष्ट में स्याद्वादपुष्पकलिका की टीका में प्रस्तुत व्याख्याओं का संकलन किया है। छठवें परिशिष्ट में पारिभाषिक शब्दकोश का संकलन है। जैसा कि पूर्व में कहा कि स्याद्वादपुष्पकलिका उपा. श्री देवचंद्रजी म. कृत 'नयचक्रसार' नामक कृति की अनुकरणात्मक रचना है, अतः सातवें परिशिष्ट में यथादृष्ट 'नयचक्रसार' का उद्धरण प्रस्तुत किया है। सामग्री के अभाव में पाण्डुलिपि के आधार पर संशोधन और संपादन संभव नहीं हुआ। परिशिष्ट सामग्री की संकलना में सुविधा हेतु ग्रंथ को परिच्छेदों में विभाजित किया है।Page Navigation
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