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न कर सकनेके कारण उन्हें भूल से गए। उसके बाद पाटलीपुत्र में संघ एकत्र हुआ और जिसे जितना याद था सुनकर ११ अंगोका संकलन किया गया अर्धमागधीमें मगधके आसपासके प्रदेशोकी भापाओकी अपेक्षा दूरस्थ महाराष्ट्रकी भापाका जो अधिक साम्य देखा जाता है उसका कारण भी यही है । इतिहास द्वारा यह भी सिद्ध है कि पुराने समयमे जैनधर्मका दक्षिणमें भली भांति प्रचार हुआ था, तब यह अनुमान असंगत नहीं हो सकता कि दुर्मिक्षकालमें मुनिवर्ग दक्षिणमें न गया हो, तद्देशीय भापाज्ञानके विना प्रचार सम्यक्तया नहीं हो सकता, अतः उसका प्रभाव कंठस्थ आगमोकी भापा पर भी पड़ा, इसके द्वारा प्रभावित बहुतसे मुनि पूर्वोक्त सम्मेलनमे पधारे, इसलिए अंगोके सकलनमे भी इसका थोड़ा बहुत असर पड़ा । उससे लगभग ८०० वर्प वाद थोड़े २ अंतरसे मथुरा
और वल्लभीमे आगमोको पुस्तकारूड़ करने के लिए साधुसम्मेलन हुए, जिनमे सब प्रान्तोसे मुनि आए, जिनके मुखस्थ सूत्रोपर तत्तत्प्रदेशोमें बहुत समय तक विचरनेसे उस देशकी भाषा, उच्चारण आर व्याकरणका कुछ न कुछ प्रभाव अंकित था । यही कारण है कि अंगोमे एक ही अगके भिन्न २ भागोमे और कहीं २ एक ही वाक्यमे भापाभेद दृष्टिगोचर होता है। इस प्रकार भाषापरिवर्तनके वहुतसे कारणोंके उपस्थित होनेपर भी पाटलीपुत्रके सम्मेलनके वाद विल्कुल अथवा अधिक परिवर्तन न होकर मात्र थोड़ा बहुत भाषा-भेद ही हुआ और अर्धमागधीके सैकड़ों प्राचीन रूप अपने स्वरूपमे सुरक्षित रह सके, इसका श्रेय अशुद्ध उच्चारणके लिए पापबंधके धार्मिक नियमको है जो कि सम्मेलनके पीछे और भी मज़बूत किया गया । वर्तमान आगमोमे कही २ जो पाठ-भेद मिलते है उनका कारण उपरोक्त वाचनाएँ है। समवायांग औपपातिक व्याख्याप्रज्ञप्ति और प्रज्ञापनासूत्र तथा वहुतसे प्राचीन ग्रंथोंमें जिसे अर्धमागधी कहा
१ देखो स्थविरावलिचरित्र सर्ग ९ श्लो. ५५ से ५८ तक । २ देवा ण भंते ! कयराए भासाए भासंति ? कयरा वा भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति ? गोयमा! देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति, सा वि य णं अद्धमागहा भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति । ३ से कि तं भासारिया ? भासारिया जे णं अद्धमागहाए भासाए भासति । ४ ! आरिसचयणे सिद्धं, देवाण अद्धमागहा वाणी । (काव्यालंकारकी नमिसाधु कृत टीका २, १२) !! सर्विमागवीं सर्वभापासु परिणामिणीम् । सर्वपा सर्वतो वाचं, सार्वशी प्रणिदध्महे ॥ ( वाग्भट्टकाव्यानुशासन पृ० २) !!! अकृत्रिमस्वादुपदा, परमार्थाभिधायिनीम् । सर्वभाषापरिणतां, जैनी वाचमुपास्महे ॥ (स्वोपज्ञ काव्यातुशासन, हेमचंद्राचार्य)