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(८) दो स्वरोंके बीचके 'व' के स्थानमे 'व' 'त' और 'य' होते है, जैसे गौरव गारव; 'त' कवि-कति; 'य' परिवर्तना-परियट्टणा इत्यादि ।
(९) महाराष्ट्रीमे स्वरोंके मध्यवर्ती असंयुक्त 'क-ग-च-ज-त-द-प-य-व' का प्रायः सर्वत्र लोप होता है और कई व्याकरणोंके अनुसार इनके स्थानमें कोई अन्य वर्ण नहीं होता । हेमचंद्राचार्यके प्राकृतव्याकरणानुसार उक्त लुप्तव्यंजनोंके दोनों ओर 'अ' या 'आ' होनेपर उनके स्थानमें 'य' होता है, किन्तु जैन अर्धमागधीमे जैसा कि ऊपरके नियमोंसे घटित है, प्रायः उनके स्थानमें अन्य व्यंजन होते है, और कहीं २ तो वही कायम रहता है। कहीं २ दोनो बातें न होकर महाराष्ट्रीकी तरह लोप भी होता है परन्तु वहीं जहां उक्त व्यंजनोंके बाद अवर्णसे भिन्न कोई स्वर हो। जैसे-आतुर आउर, लोक. लोओ प्रभृति ।
(१०) शब्दके आदि मध्य और संयोगमें सर्वत्र 'ण' की तरह 'न' भी होता है। जैसे-ज्ञातपुत्र लायपुत्त; अनल=अनल; अन्योन्य-अन्नमन्नः सर्वज्ञ-सन्वन्नु इत्यादि ।
(११) एव से पूर्वके 'अम्' के स्थानमे 'आम्' होता है, जैसे यामेव जामेव; क्षिप्रमेव-खिप्पामेवः एवमेव-एवामेव वगैरह ।
(१२) दीर्घ स्वरके बादके 'इति वा' के स्थानमें 'ति वा' और 'इ वा' होता है, जैसे-इन्द्रमह इति वा इंदमहे ति वा-इंदमहे इ वा इत्यादि ।
(१३) 'यथा' और 'यावत्' शब्दके 'य' का लोप और 'ज' दोनों ही देखे जाते हैं जैसे-यथाख्यात अहक्खाय; यथानामक-जहानामए; यावत्कथा आवकहा; यावजीव-जावज्जीव ।
वर्णागम-अर्धमागधीमें गद्यमें भी अनेक जगह पर समासके उत्तर शब्दके पहले 'म्' का आगम होता है, जैसे-अजहन्नमणुक्कोस, अदुक्खमसुहा, गोणमाइ, णिरयंगामी, सामाइयमाइयाई, उढुंगारव आदि । महाराष्ट्रीमे पद्यमें ही पादपूर्तिके लिए कहीं २ 'म्' का आगम देखा जाता है गद्यमे नहीं।
शब्दभेद--(१) अर्धमागधीमें ऐसे बहुतसे शब्द हैं जिनका प्रयोग महाराष्ट्रीमें प्रायः उपलब्ध नहीं होता, जैसे-अज्झत्थिय, अज्झोववन्न, अणुवीति, आघवणा, आघवेत्तग, आणापाणु, आवीकम्म, कण्हुइ, केमहालए, दुरूढ, पञ्चत्थिमिल, पाउकुव्वं, पुरथिमिल्ल, पोरेवच्च, महतिमहालिया, वक, विउस इत्यादि ।
(२) ऐसे शब्द भी प्रचुर संख्यामे पाए जाते हैं जिनके रूप अर्धमागधी और महाराष्ट्रीमें भिन्न २ प्रकारके होते है । जैसे कि