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तद्धित (१) अर्धमागधीमें 'तर' प्रत्ययका 'तराय' रूप होता है, जैसे-अणि?तराए, अप्पतराए, बहुतराए, कंततराए इत्यादि ।
(२) आउसो, आउसंतो, गोमी, वुसिमं, भगवंतो, पुरथिम, पञ्चत्थिम, ओयंसि, दोसिणो, पोरेवच्च आदि प्रयोगोमें 'मतुप्' और अन्य तद्धित प्रत्ययोके जैसे रूप जैन अर्धमागधीमें देखे जाते हैं महाराष्ट्रीमें वे भिन्न प्रकारके होते हैं।
महाराष्ट्री और अर्धमागधीमें इनके अतिरिक्त बहुतसे सूक्ष्म भेद हैं जिनका उल्लेख लेखका देहसूत्र बढ़नेके भयसे नहीं किया।
आगमोद्धार जैसाकि हम ऊपर आगमोके इतिहास प्रकरणमें लिख चुके है स्थानकवासी समाजमे उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली गई, अतः ज्ञानमे वृद्धि होनी ही थी । सवसे पहले श्रीधर्मशी स्वामीने मूलसूत्रोंपर 'टब्बे' लिखे, जो कि साधारण अभ्यासीके लिए अत्यंत उपयोगी है । क्या ही अच्छा होता यदि उन्हें प्रकाशित किया जाता। इसके बाद पूज्य श्रीअमोलक ऋषिजी म० ने बत्तीसों सूत्रोंका अनुवाद किया । जिसका प्रकाशन हज़ारों रुपया व्यय करके श्रीमान् राजा बहादुर शेठ दानवीर सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरीने किया, इसके लिए वे अधिकाधिक धन्यवादके पात्र है । लेकिन पाठोकी अशुद्धि, कागज़की खरावी और मिश्रित हिन्दी होनेके कारण समाजको इतना लाभ न मिल सका जितना मिलना चाहिए था। इसके अनन्तर जैनाचार्य पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज और पूज्य श्रीहस्तीमलजी म. ने भी कई सूत्रोंके अनुवाद किए और घासीलालमुनि भी कर रहे हैं। __इसके अतिरिक्त रायवहादुर धनपतसिंह (मकसूदावादवाले) और आगमोदयसमिति आदिने भी आगमोंका प्रकाशन किया है पर वे भी अशुद्धियोंसे खाली नहीं । कई प्राध्यापकों ने भी इंग्लिश अनुवाद सहित कुछ सूत्र प्रकाशित किए, परंतु अतिसंक्षिप्त और महाराष्ट्री प्रधान होनेके कारण स्वाध्यायी के लिए अधिक उपयोगी नहीं।
सूत्रागमप्रकाशकसमिति वैदिक प्रेस अजमेरकी छपी हुई चारो मूल वेदोकी पुस्तक एक किसानने गुरु महाराजकी सेवामे पेश की और पूछा कि आपके आगम भी एक जिल्दमे मिल