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रांग का प्रथम श्रुतस्कंध ही अलग रूपमें प्रगट हो सका जो कि बहुतसे साधुसाध्वियोंके करकमलों में पहुँचाया गया। इसके अनन्तर गुरुदेव घोड़नदी अहमदनगर आदि क्षेत्रोंमें विचरते हुए नासिक पधारे। वहां तक केवल स्थानांगसूत्र तक छप सका। तदनन्तर घाटकोपर चातुर्मासमें समवायांग और भगवतीसूत्र तैयार हुए । पूर्वोक्त सूत्र भी कई साधु-साध्वियोके पास पहुँचाए गए । शुद्धपाठका निर्णय करनेमें काफ़ी से ज्यादह परिश्रम उठाना पड़ा है। इसके बाद सादड़ी सम्मेलनमें जाना पड़ा। अतः लगभग पांच मास तक कार्य बंद रहा । दोडायचा चतुर्मासमें फिर कार्य आरंभ हुआ। जहां से लगभग १००० सूत्र साधु-साध्वियोके हाथोंमें पहुंचाए गए। शनैः २ कार्य चलता रहा और सिरपुर में ११ अंगोके कार्यकी पूर्णाहुति हुई।
स्पष्टीकरण-(१) जिनका ११ अंगोंमें वर्णन है उन्होंने भी ११ अंगोका अध्ययन किया, इसका कारण यह कि इनके प्रणेता श्रीसुधर्मा खामी हैं। भगवान् महावीरके पश्चात् वे ही पट्टपर आए, और शासनकी वागडोर संभाली। जैसे अनुत्तरोपपातिकसूत्रमें धन्ना अणगारका वर्णन है। कई प्रतियोके आरंभमें पाठ मिलता है. लेणिओ राया लेकिन श्रेणिक तो पहले ही मर चुके थे। अतः वह पाठ अशुद्ध है ऐसा जानना चाहिए।
(२) शब्दकोप गाथाबद्ध सानुवाद तैयार किया जा रहा है, अतः शब्दकोष नहीं दिया गया।
(३) अन्य उपयुक्त विषय जो कि ग्रंथके देहसूत्र वढ़ जानेके कारण नहीं दिए जा सके, वे अन्य पुस्तकमें दिए जायंगे ।
जिणचंदभिक्खू
शातिभवन अंबरनाथ C. R.
ता० ७.२-१९५३