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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा ३५
भावधर्ममध्ययनं
भावार्थ - गृहवास में ज्ञान का लाभ नहीं हो सकता है, यह सोचकर जो पुरुष प्रव्रज्याधारण करके उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करते हैं, वे ही मोक्षार्थी पुरुषों के आश्रय करने योग्य हैं। वे पुरुष बन्धन से मुक्त हैं तथा वे असंयम जीवन की इच्छा नहीं करते हैं ।
टीका 'गृहे' गृहवासे गृहपाशे वा गृहस्थभाव इति यावत् 'दीवं'ति 'दीपी दीप्तौ' दीपयति- प्रकाशयतीति दीपः स च भावदीपः श्रुतज्ञानलाभः यदिवा - द्वीपः समुद्रादौ प्राणिनामाश्वासभूतः स च भावद्वीपः संसारसमुद्रे सर्वज्ञोक्तचारित्रलाभस्तदेवम्भूतं दीपं द्वीपं वा गृहस्थभावे 'अपश्यन्तः' अप्राप्नुवन्तः सन्तः सम्यक् प्रव्रज्योत्थानेनोत्थिता, उत्तरोत्तरगुणलाभेनैवम्भूता भवन्तीति दर्शयति- 'नरा:' पुरुषाः पुरुषोत्तमत्वाद्धर्मस्य नरोपादानम्, अन्यथा स्त्रीणामप्येतद्गुणभाक्त्वं भवति, अथवा देवादिव्युदासार्थमिति, मुमुक्षूणां पुरुषाणामादानीया - आश्रयणीयाः पुरुषादानीया महतोऽपि महीयांसो भवन्ति, यदिवा - आदानीयो - हितैषिणां मोक्षस्तन्मार्गे वा सम्यग्दर्शनादिकः पुरुषाणां मनुष्याणामादानीयः पुरुषादानीयः स विद्यते येषामिति विगृह्य मत्वर्थीयोऽर्शआदिभ्यो ऽजिति, तथा य एवंभूतास्ते विशेषेणेरयन्ति अष्टप्रकारं कर्मेति वीराः, तथा बन्धनेन सबाह्याभ्यन्तरेण पुत्रकलत्रादिस्नेहरूपेणोत्-प्राबल्येन मुक्ता बन्धनोन्मुक्ताः सन्तो 'जीवितम्' असंयमजीवितं प्राणधारणं वा 'नाभिकाङ्क्षन्ति' नाभिलषन्तीति ||३४|| किञ्चान्यत्
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टीकार्थ गृहवास में अथवा पाश के समान बन्धनरूप गृह यानी गृहस्थ भाव में दीप के समान वस्तु को प्रकाश करनेवाला श्रुतज्ञानरूप भावदीप प्राप्त नहीं हो सकता है अथवा समुद्र आदि में प्राणियों को विश्राम देनेवाले द्वीप के समान जो संसार समुद्र में प्राणियों को विश्राम देनेवाला सर्वज्ञोक्त चारित्ररूप भावद्वीप है, वह नहीं मिल सकता है, यह समझकर जो पुरुष प्रव्रज्या धारण करके उत्तरोत्तर गुणों की उन्नति करते हैं, वे आगे कहे अनुसार होते हैं, यह शास्त्रकार दिखाते हैं । धर्म में पुरुषों की प्रधानता है, इसलिए यहां नर यानी पुरुषों का ही ग्रहण है, नहीं तो स्त्रियां भी इन गुणों से युक्त होती हैं अथवा देवता आदि की व्यावृत्ति के लिए यहां 'नर' कहा गया है, स्त्री की व्यावृत्ति के लिए नहीं । वे पुरुष मोक्ष की इच्छा करनेवाले पुरुषों के आश्रय स्वरूप बड़े से बड़े हो जाते हैं । अथवा हितैषी पुरुष जिसका ग्रहण करते हैं, वह मोक्ष अथवा मोक्ष का मार्ग जो सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र है, उसे पुरुषादानीय कहते हैं क्योंकि पुरुषों से वह ग्रहण किया जाता है, वह मोक्ष अथवा मोक्ष का मार्ग जिसमें विद्यमान हैं उसे पुरुषादानीय कहते हैं, यहां पुरुषादानीय शब्द से मत्वर्थीय 'अच्' प्रत्यय करके यह अर्थ करना चाहिए । जो पुरुष ऐसे हैं, वे ही अपने आठ प्रकार के कर्मों को विशेष रूप से नाश करनेवाले वीर हैं एवं पुत्र, कलत्र आदि के स्नेहरूप बाह्य और अभ्यन्तर बन्धन से वे ही मुक्त हैं । वे पुरुष असंयम जीवन की अथवा प्राण धारणरूप जीवन की इच्छा नहीं करते हैं ||३४||
अगिद्धे सद्दफासेसु आरंभेसु अणिस्सिए ।
सव्वं तं समयातीतं, जमेतं लवियं बहु
।।३५ ।।
छाया - अगृद्धः शब्दस्पर्शेष्वारम्भेष्वनिश्रितः । सर्वं तत्समयातीतं यदेतल्लपितं बहु ||
अन्वयार्थ - (सद्दफासेसु अगिद्धे ) साधु मनोहर शब्द, रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श में आसक्त न हो ( आरंभेसु अणिस्सिए) तथा सावध अनुष्ठान न करे (जमेतं बहु लवियं) इस अध्ययन के आदि से लेकर जो नहीं करने योग्य बहुत बातें कही गयी हैं (सव्वं तं समयातीतं ) वे सब बातें जिनागम से विरुद्ध होने के कारण निषिद्ध हैं ।
भावार्थ - साधु मनोहर शब्द, रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श में आसक्त न रहे तथा वह सावद्य अनुष्ठान न करे । इस अध्ययन के आदि से लेकर जो बातें (निषेधरूप से) बतायी गयी हैं, वे जिनागम से विरुद्ध होने के कारण निषेध की गयी हैं, परन्तु जो अविरुद्ध हैं । उनका निषेध नहीं है ।
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टीका – 'अगृद्धः' अनध्युपपन्नोऽमूर्च्छितः क्व ? - शब्दस्पर्शेषु मनोज्ञेषु आद्यन्तग्रहणान्मध्यग्रहणमतो मनोज्ञेषु रूपेषु गन्धेषु रसेषु वा अगृद्ध इति द्रष्टव्यं तथेतरेषु वाऽद्विष्ट इत्यपि वाच्यं तथा 'आरम्भेषु' सावद्यानुष्ठानरूपेषु