Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 232
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा ५ श्रीसमवसरणाध्ययनम् सद्धेतुभिर्व्याकुलितमना मौनमेव प्रतिपद्यत इति भावः, अननुभाष्य च प्रतिपक्षसाधनं तथाऽदूषयित्वा च स्वपक्षं प्रतिपादयन्ति तद्यथा - "इदम्" अस्मदभ्युपगतं दर्शनमेक: पक्षोऽस्येति एकपक्षमप्रतिपक्षतयैकान्तिकमविरुद्धार्थाभिधायितया निष्प्रतिबाधं पूर्वापराविरुद्धमित्यर्थः, इदं चैवंभूतमपि सदि(त्कमि) त्याह - द्वौ पक्षावस्येति द्विपक्षं - सप्रतिपक्षमनैकान्तिकं पूर्वापरविरुद्धार्थाभिधायितया विरोधिवचनमित्यर्थः, यथा च विरोधिवचनत्वं तेषां तथा प्राग्दर्शितमेव, यदिवेदमस्मदीयं दर्शनं द्वौ पक्षावस्येति द्विपक्षं कर्मबन्धनिर्जरणं प्रति पक्षद्वयसमाश्रयणात्, तत्समाश्रयणं चेहामुत्र च वेदनां चौरपारदारिकादीनामिव, ते हि करचरणनासिकादिच्छेदादिकामिहैव पुष्पकल्पां स्वकर्मणो विडम्बनामनुभवन्ति अमुत्र च नरकादौ तत्फलभूतां वेदनां समनभवन्तीति. एवमन्यदपि कर्मोभयवेद्यमभ्यपगम्यते. तच्चेदं "प्राणी प्राणिजान" मि तथेदमेक: पक्षोऽस्येत्येकपक्षं इहैव जन्मनि तस्य वेद्यत्वात्, तच्चेदम् - अविज्ञोपचितं परिज्ञोपचितमीर्यापथं स्वप्नान्तिकं चेति । तदेवं स्याद्वादिनाऽभियुक्ताः स्वदर्शनमेवमनन्तरोक्तया नीत्या प्रतिपादयन्ति, तथा स्याद्वादिसाधनोक्तौ छलायतनं - छलं नवकम्बलो देवदत्त इत्यादिकं "आहुः" उक्तवन्तः, चशब्दादन्यच्च दूषणाभासादिकं, तथा कर्म च एकपक्षद्विपक्षादिकं प्रतिपादितवन्त इति, यदिवा षडायतनानि - उपादानकारणानि आश्रवद्वाराणि श्रोत्रेन्द्रियादीनि यस्य कर्मणस्तत्षडायतनं कर्मेत्येवमाहरिति ॥५॥ टीकार्थ - नास्तिक गण की वाणी के द्वारा अर्थात् उनके माने हुए सिद्धान्त से ही जब पदार्थ का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है अथवा जब पदार्थ का अस्तित्व माने बिना उनके सिद्धान्त की सिद्धि न होने के कारण, वह पदार्थ सिद्ध हो जाता है तब केवल वचन से उस पदार्थ का निषेध करते हए वे नास्तिक इन दोनों से मिश्रित परस्पर विरूद्ध पक्ष को स्वीकार करते हैं । वा शब्द से यह समझना चाहिए कि - पदार्थ का प्रतिषेध करते हुए नास्तिक उसका अस्तित्व ही प्रतिपादन कर बैठते हैं । यह इस प्रकार समझना चाहिए - लोकायतिक मतवाले जीवादि पदार्थो का अभाव बतानेवाले शास्त्रों को अपने शिष्य के प्रति उपदेश करते हुए शास्त्र के कर्ता आत्मा को तथा उपदेश के साधन रूप शास्त्र को और जिसको उपदेश किया जाता है, उस शिष्य को तो अवश्य ही स्वीकार करते हैं क्योंकि इनको स्वीकार किये बिना उपदेश आदि नहीं हो सकता है। परन्तु सर्वशून्यतावाद में ये तीनों पदार्थ भी नहीं हैं, अतः ये मिश्र पक्ष का आश्रय करते हैं अर्थात् पदार्थ नहीं है, यह भी कहते है और उसकी सत्ता भी स्वीकार करते हैं अथवा पदार्थ का प्रतिषेध करते हुए वे उसका अस्तित्व स्वीकार कर बैठते हैं। इसी तरह बौद्ध भी परस्पर विरुद्ध मिश्र पक्ष का ही आश्रय लेते हैं, अत एव विद्वानों ने कहा है कि "गन्ता च" अर्थात् जिसमें जानेवाला कोई नहीं माना गया है ऐसे बौद्धशासन में छः गतियाँ किस प्रकार कही गई हैं । गमन करने को गति कहते हैं, यह श्रुति (कहावत ) बौद्धमत में किस प्रकार घट सकती है ? । कर्म तो है नहीं परन्तु उसका फल होता है ? यह कैसे ? जब कि गति करनेवाला आत्मा ही नहीं हैं तब उसकी छः गतियाँ कैसी ? बौद्धों का माना हुआ ज्ञान सन्तान भी प्रत्येक ज्ञानों से भिन्न नहीं किन्तु वह आरोपित है, तथा प्रत्येक ज्ञानक्षण क्षणविनाशी होने के कारण स्थिर नहीं हैं, इसलिए क्रिया न होने के कारण नाना गति होना इस मत में कदापि सम्भव नहीं है । तथा बौद्ध अपने आगम में सभी कर्मों को अबन्धन कहते हैं परन्तु पाँच सौ बार बुद्ध का जन्म लेना भी वे बताते हैं । तथा वे यह भी कहते हैं कि - माता और पिता को मारकर एवं बुद्ध के शरीर से रक्त निकाल कर अरिहन्त का वध करके तथा धर्मस्तप व को तोड़कर मनुष्य आवीचि नरक को जाता है। जब कि कर्म, बन्धन नहीं होता है तब फिर यह उक्ति किस प्रकार युक्त कही जा सकती है तथा जब कि सर्वशून्य है तब ऐसे शास्त्रों का निर्माण किस प्रकार युक्ति सङ्गत हो सकता है ? यदि कर्म बन्धनदायी नहीं है, तो जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, उत्तम, मध्यम और अधम किस प्रकार हो सकते हैं। कर्म का जो नाना प्रकार का फल देखा जाता है, इससे सिद्ध होता है कि जीव अवश्य है और वह कर्ता है तथा वह कर्म के सहित है । (इस प्रकार पदार्थो का अस्तित्व सिद्ध होने पर भी) बौद्ध जो यह कहते हैं कि - "गान्धर्व' अर्थात् "बादलों के नगर का दृश्य के समान सांसारिक पदार्थ मिथ्या हैं तथा वे माया और स्वप्न, मृगतृष्णा, नीहारजल, चन्द्रिका और आलात चक्र के समान आभास मात्र हैं' सो यह स्पष्ट ही बौद्धों का मिश्र पक्ष स्वीकार करना है अथवा वे कर्मो का जूदाजूदा फल मानकर सर्वशून्यतावाद से विपरीत भाषण करते हैं । अत एव जैनाचार्यों ने कहा है कि - हे मित्र! ५१४

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