Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 313
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा २४ ग्रन्थाध्ययनम् तथा 'साधुः' सुष्ठु बोधयेत् न कुत्रचित्क्रुद्धमुखहस्तौष्ठनेत्रविकारैरनादरेण कथयन् मनःपीडामुत्पादयेत्, तथा प्रश्नयतस्त भाषामपशब्दादिदोषदुष्टामपि धिग् मूर्खासंस्कृतमते ! किं तवानेन संस्कृतेन पूर्वोत्तरव्याहतेन वोच्चारितेनेत्येवं 'न विहिंस्यात्' न तिरस्कुर्याद् असंबद्धोद्धट्टनतस्तं प्रश्नयितारं न विडम्बयेदिति । तथा निरुद्धम्-अर्थस्तोकं दीर्घवाक्यैमहता शब्ददर्दुदरणार्कविटपिकाष्टिकान्यायेन न कथयेत् निरुद्धं वा-स्तोककालीनं व्याख्यानं व्याकरणतर्कादिप्रवेशनद्वारेण प्रसक्त्यानुप्रसक्त्या 'न दीर्घयेत्' न दीर्घकालिकं कुर्यात्, तथा चोक्तम्"सो अत्यो वत्तव्वो जो भण्णइ अक्खरेहिं थोवेहिं । जो पुण थोवो बहुअक्खरैहिँ सो होइ निस्सारो।।१॥" तथा किञ्चित्सूत्रमल्पाक्षरमल्पार्थ वा इत्यादि चतुर्भङ्गिका, तत्र यदल्पाक्षरं महार्थं तदिह प्रशस्यत इति ॥२३॥ टीकार्थ - पूर्वोक्त दो भाषाओं से शास्त्र का अर्थ कहते हुए आचार्य आदि के कथन को कोई मेधावी शिष्य ठीक-ठीक उसी तरह समझ लेते हैं परन्तु दूसरा मन्दमति पुरुष उसे विपरीत समझता है। उक्त प्रकार से विपरीत समझनेवाले मन्दमति पुरुष को वह साधु उचित हेतु, उदाहरण और समीचीन युक्तियों के द्वारा उस तरह समझावे जैसे कि - वह समझ जाय, परन्तु "तूं मूर्ख है, तूं लण्ठ है, तूं आकाश को देखनेवाला है" इत्यादि कटु वाक्यों के द्वारा उसे झिटके नहीं । तथा क्रोधित मुख, हाथ, ओष्ठ और नेत्र के विकार से अनादर के साथ कहता हुआ साधु उस मन्दमति पुरुष के मन को पीड़ित न करे । एवं प्रश्न करनेवाले पुरुष की भाषा यदि अशुद्ध हो तो उसे धिक्कार देता हुआ साधु यह न कहे कि- "हे मूर्ख ! हे असंस्कृतमते ! तुझ को धिक्कार है, तुम्हारे इस पूर्वापर विरुद्ध उच्चारण से क्या सिद्ध हो सकता है ? इत्यादि कहकर उसकी भाषा की निन्दा न करे तथा उस प्रश्न करनेवाले पर असम्बद्ध भाषण का दोष लगाकर उसका अपमान न करे । तथा जो अर्थ छोटा है, उसे व्यर्थ के शब्दाडम्बरों से न बढ़ावे जैसे आकड़े की लकड़ी कहने के स्थान में कोई "अर्कविटपिकाष्ठिका" कहकर व्यर्थ शब्दाडम्बर रचता है, वैसा साधु न करे । अथवा जो व्याख्यान थोड़े काल में पूरा किया जा सकता है, उसे व्याकरण और तर्क का प्रपञ्च लगाकर प्राप्ति और अनुप्राप्ति के द्वारा दीर्घकालिक न कर डाले । जैसाकि कहा है साधु वही अर्थ कहे जो अल्प अक्षरों में कहा जाय । जो अर्थ थोड़ा होकर बहुत अक्षरों में कहा जाता है, वह निःसार समझना चाहिए । कोई सूत्र अल्प अक्षरवाला और अल्प अर्थवाला होता है, इस विषय में एक चौभङ्गी कहनी चाहिए। उसमें जो सूत्र अल्प अक्षरवाला और महान् अर्थवाला है, उसी की यहाँ प्रशंसा की जाती है ॥२३।। . - अपि च - ___- और भी समालवेज्जा पडिपुन्नभासी, निसामिया समियाअट्ठदंसी। आणाइ सुद्धं वयणं भिउंजे, अभिसंधए पावविवेग भिक्खू ॥२४॥ छाया - समालपेत्प्रतिपूर्णभाषी, निशम्य सम्यगर्थदर्शी । भाज्ञाशुद्धं वचनमभियुजीत, अभिसन्धयेत्पापविवेकं भिक्षुः ॥ अन्वयार्थ - (पडिपुन्नभासी समालवेज्जा) जो अर्थ थोड़े अक्षरों में न कहा जा सके, उसे विस्तृत शब्दों के द्वारा साधु प्रतिपादन करे (निसामिया समियाअट्ठदंसी) गुरु से सुनकर अच्छी तरह पदार्थ को जाननेवाला साधु (आणाइ सुद्धं वयणं भिउंजे) आज्ञा से शुद्ध वचन बोले (भिक्खू पावविवेग अभिसंधए) साधु पाप का विवेक रखकर निर्दोष वचन बोले । भावार्थ - जो अर्थ थोड़े शब्दों में कहने योग्य नहीं है, उसे साधु विस्तृत शब्दों में कहकर समझावे । तथा साधु गुरु से पदार्थ को सुनकर उसे अच्छी तरह समझकर आज्ञा से शुद्ध वचन बोले । साधु पाप का वचन बोले। 1. सोऽर्थो वक्तव्यो यो भण्यतेऽक्षरैः स्तोकैः । यः पुनः स्तोको बहुभिरक्षरैः स भवति निस्सारः ॥१॥

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