Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 332
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा १२ पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् (सद्धर्म०) अर्थात् हे लोक के बान्धव! उत्तम धर्मरूपी बीज बोने में यद्यपि विलक्षण आप का कौशल है तथापि आप का प्रयास जो कहीं निष्फल हुआ सो कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि उलूक आदि तामस पक्षियों को सूर्य की किरणें भ्रमरी के चरण की तरह काली प्रतीत होती हैं। धर्म की शिक्षा देनेवाला वह पुरुष कैसा है ? सो शास्त्रकार बतलाते हैं-धन को वसु कहते हैं, जो पुरुष मोक्ष के प्रति तत्पर है. उसके लिए संयम ही धन है. वह संयम जिसमें विद्यमान है, उसे वसमान कहते हैं। तथा देव आदि के द्वारा की हुई अशोक आदि पूजा का जो उपभोग करता है, उसे पूजनास्वादक कहते हैं। प्रश्न किया कि- देवादिकृत आधाकर्मरूप समवसरण का उपभोग करनेवाले तीर्थङ्कर सत्संयमी कैसे ? समाधान यह है किदेवादिकृत पूजा में उनकी रुचि नहीं है इसलिए वे सत्संयमी हैं अथवा द्रव्य से समवसरण आदि होने पर भी भगवान् भाव से उसके आस्वादक नहीं हैं क्योंकि उसमें उनकी गृद्धि नहीं है । तथा उक्त पूजा का उपभोगी होने पर भी भगवान् एकान्तरूप से संयम में परायण रहने के कारण सत्संयमी ही हैं । यह कैसे ? क्योंकि भगवान् इन्द्रिय और नो इन्द्रिय को वश किये हुए हैं। यह गुण भी उनमें कैसे ? वह संयम में दृढ़ हैं तथा मैथुन से वर्जित हैं, उनको इच्छा, मदन, काम नहीं है और इसके न होने से वे संयम में दृढ़ हैं। भगवान् का चारित्र दीर्घ है, इसलिए वे दान्त हैं, उन्होंने इन्द्रिय और नो इन्द्रिय को वश कर लिया है, इस कारण वे देवादिकृत पूजा के आस्वादक नहीं हैं । भगवान् देवादिकृत पूजा के आस्वादक नहीं हैं इसलिए द्रव्यरूप से देवादिकृत पूजा के भोग करने पर भी वे सत्संयमी ही हैं ॥११॥ - किमित्यसावुपरतमैथुन इत्याशङ्कयाह - वे पुरुष मैथुन का त्याग क्यों करते हैं ? यह शङ्का करके शास्त्रकार कहते हैंणीवारे व ण लीएज्जा, छिन्नसोए अणाविले । अणाइले सया दंते, संधि पत्ते अणेलिसं ॥१२॥ छाया - नीवार इव न लीयेत, छिलस्रोता अनाविलः । अनाविलः सदा दान्तः सन्धि प्राप्तोऽनीदृशम् ॥ अन्वयार्थ - (णीवारे व ण लीएज्जा) सुअर आदि प्राणी को प्रलोभित करके मृत्यु के स्थान पर पहुंचानेवाले चावल के दाने के समान स्त्री प्रसंग है, अतः स्त्री, प्रसङ्ग न करे (छिन्नसोए) विषयभोग में इन्द्रियों की प्रवृत्ति संसार में आने के द्वार हैं, इसलिए जिसने विषयभोगरूप आश्रवद्वार का छेदन कर डाला है (अणाविले) तथा जो रागद्वेषरूप मल से रहित है (अणाइले) एवं विषय भोग में प्रवृत्ति न करता हुआ जो स्थिरचित्त है (सया दंते) वही पुरुष इन्द्रिय और मन को वश किया हुआ (अणेलिसं संधि पत्ते) अनुपम भावसन्धि को प्राप्त करता है। भावार्थ - जैसे चावल के दानों को खाने के लोभ से सुअर आदि प्राणी वध्यस्थानपर पहुँच जाते हैं, इसी तरह स्त्रीसेवन के लोभ में पड़कर जीव संसार भ्रमण करता है, अतःसुअर आदि को वध्यस्थान में पहुँचानेवाले चावल के दाने के समान स्त्री प्रसङ्ग जीव के नाश का कारण है, इसलिए विद्वान् पुरुष स्री प्रसङ्ग कदापि न करे । जो पुरुष अपनी इन्द्रियों को विषयभोग में प्रवृत्त नहीं करता है तथा रागद्वेष को जीतकर प्रसन्नचित्त हो गया है, वह इन्द्रिय और मन को वश किया हुआ पुरुष अनुपम भावसन्धि को प्रास करता है । टीका - नीवारः-सूकरादीनां पशूनां वध्यस्थानप्रवेशनभूतो भक्ष्यविशेषस्तत्कल्पमेतन्मैथुनं, यथा हि असौ पशुर्नीवारेण प्रलोभ्य वध्यस्थानमभिनीय नानाप्रकारा वेदनाः प्राप्यते एवमसावप्यसुमान् नीवारकल्पेनानेन स्त्रीप्रसङ्गेन वशीकृतो बहुप्रकारा यातनाः प्राप्नोति, अतो नीवारप्रायमेतन्मैथुनमवगम्य स तस्मिन् ज्ञाततत्त्वो 'न लीयेत' न स्त्रीप्रसङ्गं कुर्यात्, किंभूतः सन्नित्याह-छिन्नानि-अपनीतानि स्रोतांसि-संसारावतरण-द्वाराणि यथाविषयमिन्द्रियप्रवर्तनानि प्राणातिपातादीनि वा आश्रवद्वाराणि येन स छिन्नस्रोताः, तथा 'अनाविलः' अकलुषो रागद्वेषासंपृक्ततया मलरहितोऽनाकुलो वाविषयाप्रवृत्तेः स्वस्थचेता एवंभूतश्चानाविलोऽनाकुलो वा 'सदा' सर्वकालमिन्द्रियनोइन्द्रियाभ्यां दान्तो भवति, ईदृग्विधश्च कर्मविवरलक्षणं भावसंधिम् 'अनीदृशम्' अनन्यतुल्यं प्राप्तो भवतीति ॥१२॥ किञ्च ६१४

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