Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 331
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा ११ पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् के घाती कर्मों का क्षय करके दिव्यज्ञान की उत्पत्ति से युक्त और मोक्षपद के अभिमुख हैं। वे पुरुष कौन हैं? यह शास्त्रकार बताते हैं- जिनका तीर्थङ्कर नाम कर्म परिपाक को प्राप्त हो रहा है तथा जिनको दिव्यज्ञान उत्पन्न हो गया है तथा जो प्राणियों के हित के लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप मोक्षमार्ग का उपदेश करते हैं और स्वयं भी उसका आचरण करते हैं, वे पुरुष मोक्ष के अभिमुख हैं ॥१०॥ __ - अनुशासनप्रकारमधिकृत्याह - अब शास्त्रकार धर्मोपदेश का भेद बताने के लिए कहते हैंअणुसासणं पुढो पाणी, वसुमं पूयणासु(स)ते । अणासए जते दंते, दढे आरयमेहुणे ॥११॥ छाया - अनुशासनं पृथक् प्राणिषु, वसुमान् पूजनास्वादकः । अनाशयो यतो दान्तो दृढ भारतमैथुनः ॥ अन्वयार्थ - (अणुसासणं पुढो पाणी) धर्मोपदेश भिन्न-भिन्न प्राणियों में भिन्न भिन्न रूप में परिणत होता है (वसुमं पूयणासु (स) ते) संयमधारी तथा देवादिकृत पूजा को प्राप्त करनेवाला (अणासए जते दंते) परंतु पूजा में रुचि न रखनेवाला, संयमपरायण, जितेन्द्रिय (दढे आरयमेहुणे) दृढ़ और मैथुनरहित पुरुष मोक्ष के सम्मुख है। भावार्थ - धर्मोपदेश भिन्न-भिन्न प्राणियों में भिन्न-भिन्न रूप में परिणत होता है । संयमधारी, देवादिकृत पूजा को प्राप्त करनेवाला परन्तु उस पूजा में रुचि न रखनेवाला, संयमपरायण जितेन्द्रिय, संयम में दृढ़ और मैथुनरहित पुरुष मोक्ष के सम्मुख है। टीका - अनुशास्यन्ते-सन्मार्गेऽवतार्यन्ते सदसद्विवेकतः प्राणिनो येन तदनुशासनं-धर्मदेशनया सन्मार्गावतारणं तत्पृथक् पृथक् भव्याभव्यादिषु प्राणिषु क्षित्युदकवत् स्वाशयवशादनेकधा भवति, यद्यपि च अभव्येषु तदनुशासनं न सम्यक् परिणमति तथापि सर्वोपायज्ञस्यापि न सर्वज्ञस्य दोषः, तेषामेव स्वभावपरिणतिरियं यया तद्वाक्यममृतभूतमेकान्तपथ्यं समस्तद्वन्द्वोपघातकारि न यथावत् परिणमति, तथा चोक्तम्“सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव । तवापि खिलान्यभूवन । तवाद्भूतं खगकुलेष्विह तामसेषु, सूर्यांशवो मधुकरीचरणावदाताः ||१||" किंभूतोऽसावनुशासक इत्याह-वसु-द्रव्यं स च मोक्षं प्रति प्रवृत्तस्य संयमः तद्विद्यते यस्यासौ वसुमान्, पूजनंदेवादिकृतमशोकादिकमास्वादयति-उपभुङ्क्त इति पूजनास्वादकः, ननु चाधाकर्मणो देवादिकृतस्य समवसरणादेरुपभोगात्कथमसौ सत्संयमवानित्याशङ्कयाह-न विद्यते आशयः-पूजाभिप्रायो यस्यासावनाशयः, यदिवा द्रव्यतो विद्यमानेऽपि समवसरणादिके भावतोऽनास्वादकोऽसौ, तद्गतगााभावात्, सत्यप्युपभोगे 'यतः' प्रयतः सत्संयमवानेवासावेकान्तेन संयमपरायणत्वात्, कुतो ? यत इन्द्रियनोइन्द्रियाभ्यां दान्तः, एतद्गुणोऽपि कथमित्याह-दृढः संयमे, आरतम्उपरतमपगतं मैथुनं यस्य स आरतमैथुन:-अपगतेच्छामदनकामः, इच्छामदनकामाभावाच्च संयमे दृढोऽसौ भवति, आयतचारित्रत्वाच्च दान्तोऽसौ भवति, इन्द्रियनोन्द्रियदमाच्च प्रयतः, प्रयत्नक्त्वाच्च देवादिपूजनानास्वादकः, तदनास्वादनाच्च सत्यपि द्रव्यतः परिभोगे सत्संयमवानेवासाविति ॥११॥ टीकार्थ - जिस शिक्षा से प्राणी, सत् और असत् के विवेकी बनाये जाकर सन्मार्ग में उतारे जाते हैं, उसे अनुशासन कहते हैं । वह धर्म की शिक्षा है क्योंकि उसी के द्वारा प्राणी सन्मार्ग में लाये जाते हैं । परन्तु उस सन्मार्ग में उतरना भव्य और अभव्य आदि प्राणियों के अभिप्राय के भेद से अनेक प्रकार का होता है, जैसे पृथिवी के भेद से एक ही जल के अनेक भेद हो जाते हैं । यद्यपि अभव्य प्राणियों में सर्वज्ञ का उपदेश उचितरूप में परिणत नहीं होता है तो भी सभी उपायों को जाननेवाले सर्वज्ञ का दोष नहीं है क्योंकि अभव्य प्राणियों के स्वभाव का ऐसा परिणाम ही है, जिससे सर्वज्ञ का वाक्य अमृतस्वरूप, एकान्तपथ्य और समस्त द्वन्द्वों का विनाशक होकर भी अभव्यों में यथावत् परिणत नहीं होता है । अत एव कहा है कि ६१३

Loading...

Page Navigation
1 ... 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364