Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 333
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा १३-१४ पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् टीकार्थ - सुअर आदि प्राणियों को वध्यस्थान में प्रवेश करवानेवाले चावल के दाने आदि भक्ष्यविशेष को नीवार कहते हैं, उस नीवार के समान ही यह स्त्री प्रसङ्ग है। जैसे व्याध आदि प्राणी, सुअर आदि पशु को चावल के दानों का लोभ देकर वध्यस्थान में ले जाकर अनेक प्रकार की पीड़ायें देते हैं इसी तरह प्राणधारी पुरुष स्त्री प्रसङ्ग के वश में होकर नाना प्रकार की यातनायें भोगता है । अतः तत्त्व दर्शी पुरुष सुअर को लोभित करनेवाले चावल के दाने के समान मैथुन को जानकर स्त्री प्रसङ्ग में प्रवृत्त न हो अर्थात् वह स्त्री प्रसङ्ग न करे । वह पुरुष किस तरह हो ? सो शास्त्रकार कहते हैं-अपने-अपने विषयों में इन्द्रियों की जो प्रवृत्ति है अथवा प्राणातिपात आदि जो आश्रवद्वार हैं, वे संसार में उतरने के द्वार हैं इसलिए जिसने इनका छेदन कर दिया है, उसे 'छिन्नस्रोता' कहते हैं । जो पुरुष 'छिन्नस्रोता' है तथा जो रागद्वेष से रहित होने के कारण मल रहित है अथवा विषय सेवन में व्यग्र नहीं है अथवा विषय सेवन में प्रवृत्ति न करने के कारण जिसका चित्त स्वस्थ है, ऐसा मल रहित अथवा आकुलता रहित पुरुष सदा इन्द्रिय और मन को वश किया हुआ है और ऐसा ही पुरुष कर्म के विवररूप अनुपम भाव सन्धि को प्राप्त होता है ॥१२॥ अणेलिसस्स खेयन्ने, ण विरुज्झिज्ज केणइ । मणसा वयसा चेव, कायसा चेव चक्खुमं ॥१३॥ छाया - अनीदृशस्य खेदहो न विरुध्येत केनाऽपि । मनसा वचसा चैव कायेन चैव चक्षुष्मान् ॥ (अणेलिसस्स खेयन्ने) जिसके समान उत्तम दूसरा पदार्थ नहीं है, उसको अनीदृश कहते हैं, वह संयम है अथवा तीर्थकरोक्त धर्म है । उस संयम में अथवा तीर्थङ्करोक्त धर्म में जो पुरुष निपुण है वह (मणसा वयसा कायसा चेव केणइ ण विरुज्झिज्ज) मन, वचन और काय से किसी प्राणी के साथ विरोध न करे (चक्खुमं) जो पुरुष ऐसा है, वही परमार्थदर्शी है। भावार्थ - जो पुरुष संयम पालन करने में तथा तीर्थरोक्त धर्म के सेवन करने में निपुण है, वह मन, वचन और काय से किसी प्राणी के साथ विरोध न करे । जो पुरुष ऐसा है, वही परमार्थदर्शी है । टीका - 'अनीदृशः' अनन्यसदृशः संयमो मौनीन्द्रधर्मो वा तस्य तस्मिन् वा 'खेदज्ञो' निपुणः, अनीदृशखेदज्ञश्च केनचित्साधं न विरोधं कुर्वीत, सर्वेषु प्राणिषु मैत्री भावयेदित्यर्थः, योगत्रिककरणत्रिकेणेति दर्शयति-'मनसा' अन्तःकरणेन प्रशान्तमनाः, तथा 'वाचा' हितमितभाषी तथा कायेन निरुद्धदुष्प्रणिहितसर्वकायचेष्टो दृष्टिपूतपादचारी सन् परमार्थतश्चक्षुष्मान् भवतीति ॥१३॥ अपि च टीकार्थ - जिसके समान उत्तम दूसरा पदार्थ नहीं है, उसे अनन्यसदृश कहते हैं । वह संयम है अथवा तीर्थङ्करोक्त धर्म है । उस संयम या तीर्थङ्करोक्त धर्म में जो पुरुष निपुण है, वह किसी प्राणी के साथ विरोध न करे किन्तु सब के साथ मैत्री की भावना करे यह अर्थ है । उक्त पुरुष तीन योग और तीन करणों से किसी के साथ वैर न करे, यह शास्त्रकार दिखलाते हैं-उक्त पुरुष मन यानी अन्तः करण से किसी के साथ विरोध न करे किन्तु चित्त को शान्त कर रहे, तथा वाणी से वह प्रजाओं का हितकारक और परिमित शब्द बोले एवं शरीर से वह सभी प्रकार की संयम विरोधी चेष्टाओं का त्याग करे । इस प्रकार पृथिवी को देखकर उस पर चलनेवाले जीवों ' को बचाकर पैर रखनेवाले पुरुष परमार्थतः तत्त्वदर्शी हैं ॥१३।। से हु चक्खू मणुस्साणं, जे कंखाए य अंतए । अंतेण खुरो वहती, चक्कं अंतेण लोहती ॥१४॥ छाया - स हि चक्षुर्मनुष्याणां, यः काइक्षायाश्चान्तकः । अन्तेन क्षुरो वहति चक्रमन्तेन लुठति ॥ ___ अन्वयार्थ - (से हु मणुस्साणं चक्खू) वही पुरुष मनुष्यों का नेत्र है (जे कंखाए अंतए) जो भोग की इच्छा के अन्त में है (खुरो अंतेण वहति) अस्तुरा अन्तिम भाग से ही वहता है (चक्कं अंतेण लोट्ठति) तथा रथ का चक्र अन्तिम भाग से ही चलता है । ६१५

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