Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 349
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते सूत्र ४ षोडशं श्रीगाथाध्ययनम् पापमपनयतीत्यर्थः । तथा 'दान्तः' इन्द्रियनोइन्द्रियाभ्यां, तथा 'शुद्धात्मा' शुद्धद्रव्यभूतो निष्प्रतिकर्मतया 'व्युत्सृष्टकायश्च' परित्यक्तदेहश्च यत्करोति तदर्शयति-सम्यग 'विध्य' अपनीय 'विरूपरूपान' नानारूपाननकलप्रतिकलान-उच्चावचान द्वाविंशतिपरीषहान् तथा दिव्यादिकानुपसर्गाश्चेति, तद्विधूननं तु यत्तेषां सम्यक् सहनं-तैरपराजितता, परीषहोपसर्गाश्च विधूयाध्यात्मयोगेन-सुप्रणिहितान्तःकरणतया धर्मध्यानेन शुद्धम्-अवदातमादानं चारित्रं यस्य स शुद्धादानो भवति । तथा सम्यगुत्थानेन-सच्चारित्रोद्यमेनोत्थितः तथा स्थितो-मोक्षाध्वनि व्यवस्थितः परीषहोपसर्गेरप्यधृष्य आत्मा यस्य स स्थितात्मा, तथा 'संख्याय' परिज्ञायासारतां संसारस्य दुष्प्रापतां कर्मभूमेर्बोधेः सुदुर्लभत्वं चावाप्य च सकलां संसारोत्तरणसामग्री सत्संयमकरणोद्यतः परैः-गृहस्थैरात्मार्थं निर्वर्तितमाहारजातं तैर्दत्तं भोक्तुं शीलमस्य परदत्तभोजी, स एवंगुणकलितो भिक्षुरिति वाच्यः ॥३॥ टीकार्थ - पापकर्म से विरति आदि गुण जो पूर्वसूत्र में माहन शब्द की प्रवत्ति के कारण कहे गये हैं, वे सभी भिक्ष शब्द की प्रवृत्ति के कारण भी जानने चाहिए। तथा इनसे भिन्न दूसरे गण भी भिक्ष में होने चाहिए वे ये हैं-जो पुरुष उन्नत यानी उद्धत होकर नहीं रहता है (वह भिक्षु कहलाने योग्य है) यहाँ उन्नत दो प्रकार का समझना चाहिए, एक द्रव्योन्नत और दूसरा भावोन्नत । जो शरीर से उद्धत होता है, वह द्रव्योन्नत है और जो भाव से उन्नत है यानी अभिमानरूपी ग्रह से ग्रस्त है, वह भावोन्नत है । उन्नत होकर रहने का निषेध है इसलिए जो तप और निर्जरा का मद भी नहीं करता है तथा विनयवान् है, वही भिक्षु है । यह शास्त्रकार कहते हैं कि- विनय से अलङ्कृत पुरुष गुरु के आदेश देते समय अथवा दूसरे समय अपने को नम्र रखता हुआ सदा गुरु के आधीन होकर रहता है । अथवा विनय के द्वारा वह अपने आठ प्रकार के कर्मों को नम्र कर देता है । गुरु आदि की वैयावच्च करने में तत्पर पुरुष समस्त पापों को निवृत्त करता है, यह अर्थ है । तथा जो इन्द्रिय और मन को वश में रखता है, जो शुद्ध द्रव्यभूत है, जो शरीर का प्रतिकर्म न करता हुआ शरीर को व्युत्सर्ग किया हुआ है, वह भिक्षु है । वह पुरुष जो कार्य करता है सो शास्त्रकार दिखलाते हैं-जो नाना प्रकार के छोटे और बड़े अनुकूल और प्रतिकूल बाईस परिषह तथा दिव्य आदि उपसगों को झटक देता है, वह भिक्षु है । इनको झटकना यह है कि इन्हें सहन करना, इनसे पराजित न होना । इस प्रकार जो परीषह और उपसर्गों को झटकाकर मन को अच्छे ध्यान में प्रवृत्त कर अध्यात्म योग यानी धर्मध्यान से शुद्ध चारित्रवाला है तथा जो सच्चारित्र के उद्योग को लेकर खडा है, जो मोक्ष मार्ग में स्थित है, जिसका मन परीषह और उपसर्गों से दबाया नहीं जाता है, तथा संसार को असार और कर्मभूमि की प्राप्ति की दुर्लभता एवं बोध की प्राप्ति की कठिनता समझकर जो संसार से पार होने की समस्त सामग्री को पाकर उत्तम संयम के अनुष्ठान में तत्पर है तथा गृहस्थों के द्वारा अपने वास्ते बनाये हुए आहार को उनके द्वारा पाकर खाता है, वह उक्त गुणयुक्त पुरुष भिक्षु कहलाने योग्य है ॥३॥ - तथाऽत्रापि गुणगणे वर्तमानो निर्ग्रन्थ इति वाच्यः, अमी चान्ये अपदिश्यन्ते, तद्यथा - तथा उक्त गुणों में वर्तमान साधु निग्रन्थ भी कहा जाता है, परन्तु उसमें दूसरे गुण भी बताये जाते हैं वे ये हैं एत्थवि णिग्गंथे एगे एगविऊ बुद्धे संछिन्नसोए सुसंजते सुसमिते सुसामाइए आयवायपत्ते विऊ दुहओवि सोयपलिच्छिन्ने णो पूयासक्कारलाभट्ठी धम्मट्ठी धम्मविऊ णियागपडिवन्ने समि(म)यं चरे दंते दविए वोसट्ठकाए निग्गंथेत्ति वच्चे ॥४॥ से एवमेव जाणह जमहं भयंतारो ॥ तिबेमि ।। इति सोलसमं गाहानामज्झयणं समत्तं ।। पढमो सुअक्खंधो समत्तो ॥१॥ छाया - अत्राऽपि निग्रन्थः एकः एकविद् बुद्धः संछिनास्रोताः सुसंयमः सुसमितः सुसामायिकः आत्मवादप्राप्तः ६३१

Loading...

Page Navigation
1 ... 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364