Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 335
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा १६ पश्चदशमादानीयाध्ययनम् दूसरे जीव भी मनुष्य लोक को प्राप्त कर के सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप धर्म की आराधना कर कर्मभूमि में संख्यात वर्ष की आयुवाले गर्भज जीव होकर उत्तम अनुष्ठान की सामग्री पाकर सब बन्धों से रहित हो जाते ॥१५॥ - इदमेवाह मनुष्य मोक्ष प्राप्त करते है, इसी बात को कहते है - णिट्ठियट्ठा व देवा वा, उत्तरीए इयं सुयं । सुयं च मेयमेगेसिं, अमणुस्सेसु णो तहा ॥१६॥ छाया - निष्ठितार्थाश्च देवा वा, उत्तरीये हदं श्रुतम् । श्रुतञ्च मे हदमेकेषाममनुष्येषु नो तथा ॥ अन्वयार्थ - (उत्तरीए इयं सुयं) लोकोत्तर प्रवचन में यह आगम का कहना है कि (गिट्टियट्ठा व देवा वा) मनुष्य ही कर्मक्षय करके सिद्ध गति को प्राप्त करता है अथवा देवता होता है (मेय मेगेसि सुयं च) मैने तीर्थङ्कर से सुना है कि ( अमणुस्सेसु णो तहा) मनुष्य से भिन्न गतिवाले सिद्धि को प्राप्त नहीं करते हैं। भावार्थ - मैने तीर्थक्कर से सुना है कि मनुष्य ही कर्मक्षय करके सिद्धि को प्राप्त होता है अथवा देवता होता है परन्तु दूसरी गतिवाले जीवों की ऐसी योग्यता नहीं होती है । टीका 'निष्ठितार्थाः' कृतकृत्या भवन्ति केचन प्रचुरकर्मतया सत्यामपि सम्यक्त्वादिकायां सामग्र्यां न तद्भव एव मोक्षमास्कन्दन्ति अपितु सौधर्माद्याः पञ्चो ( ञ्चानु ) त्तरविमानावसाना देवा भवन्तीति एतल्लोकोत्तरीये प्रवचने श्रुतम्आगमः एवंभूतः सुधर्मस्वामी वा जम्बूस्वामिनमुद्दिश्यैवमाह-यथा मयैतल्लोकोत्तरीये भगवत्यर्हत्युपलब्धं, तद्यथाअवाप्तसम्यक्त्वादिसामग्रीकः सिध्यति वैमानिको वा भवतीति । मनुष्यगतावेवैतन्नान्यत्रेति दर्शयितुमाह- 'सुयं में' इत्यादि पश्चार्धं तच्च मया तीर्थकरान्तिके 'श्रुतम्' अवगतं, गणधरः स्वशिष्याणामेकेषामिदमाह - यथा मनुष्य एवाशेषकर्मक्षयात्सिद्धिगतिभाग्भवति नामनुष्य इति एतेन यच्छाक्यैरभिहितं तद्यथा - देव एवाशेषकर्मप्रहाणं कृत्वा मोक्षभाग्भवति, तदपास्तं भवति, न ह्यमनुष्येषु गतित्रयवर्तिषु सच्चारित्रपरिणामाभावाद्यथा मनुष्याणां तथा मोक्षावाप्तिरिति ॥१६॥ टीकार्थ मनुष्य सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की आराधना करके मोक्ष को प्राप्त करते हैं परन्तु कोई कोई अधिक कर्म होने के कारण सम्यक्त्व आदि सामग्री होने पर भी उसी भव में मोक्ष को नहीं पाते किन्तु सौधर्म आदिक पञ्चानुत्तर विमानवासी तक देवता होते हैं, यह लोकोत्तर प्रवचन में आगम का कथन है । अथवा सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते है कि यह मैंने लोकोत्तर भगवान् अरिहन्त से सुना कि सम्क्त्व आदि सामग्री को पाकर मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता है अथवा वैमानिक होता है । मनुष्य गति में ही सिद्धि प्राप्त होती है, दूसरी गति में नहीं यह शास्त्रकार दिखलाते हैं- गणधर अपने शिष्यों से कहते हैं कि मैने यह तीर्थङ्कर से सुना है किमनुष्य ही समस्त कर्मों का क्षय करके मुक्ति को प्राप्त करता है, जो मनुष्य नहीं है, वह नहीं । इस कथन से, शाक्यों ने जो यह कहा है कि देवता ही समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष की प्राप्ति करता है, वह खण्डित समझना चाहिए क्योंकि मनुष्य से भिन्न जो तीन गतियां हैं, उनमें सम्यक्त्वचारित्र का परिणाम न होने से मनुष्य की तरह मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ १६ ॥ इदमेव स्वनामग्राहमाह यही स्व नाम लेकर कहते है 1. इष्टितोऽवधारणविद्येर्भवतीत्यस्याग्रतो योजनैवकारस्य, तथा चासंभवव्यवच्छेदायैवकारोऽत्र, अन्यथा बुद्धस्यापि मनुष्यत्वादनिर्मोक्षप्रसङ्गः । ६१७

Loading...

Page Navigation
1 ... 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364