Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 330
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा १० पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् असंयम जीवन की इच्छा नहीं करते हैं । टीका - ये महासत्त्वाः कटुविपाकोऽयं स्त्रीप्रसङ्ग इत्येवमवधारणातल्या स्त्रियः सुगतिमार्गार्गलाः संसारवीथीभूताः सर्वाविनयराजधान्यः कपटजालशताकुला महामोहनशक्तयो 'न सेवन्ते' न तत्प्रसङ्गमभिलषन्ति त एवंभूता जना इतरजनातीताः साधव आदौ-प्रथमं मोक्षः-अशेषद्वन्द्वोपरमरूपो येषां ते आदिमोक्षाः, हुरवधारणे, आदिमोक्षा एव तेऽवगन्तव्याः, इदमुक्तं भवति-सर्वाविनयास्पदभूतः स्त्रीप्रसङ्गो यैः परित्यक्तस्त एवादिमोक्षाः-प्रधानभूतमोक्षाख्यपुरुषार्थोद्यताः, आदिशब्दस्य प्रधानवाचित्वात्, न केवलमुद्यतास्ते जनाः स्त्रीपाशबन्धनोन्मुक्ततयाऽशेषकर्मबन्धनोन्मुक्ताः सन्तो 'नावकाङ्क्षन्ति' नाभिलषन्ति असंयमजीवितम् अपरमपि परिग्रहादिकं नाभिलषन्ते, यदिवा परित्यक्तविषयेच्छाः सदनुष्ठानपरायणा मोक्षकताना 'जीवितं' दीर्घकालजीवितं नाभिकाङ्क्षन्तीति ॥९॥ किश्चान्यत् ___टीकार्थ - जो पुरुष महापराक्रमी हैं, वे समझते हैं कि-"स्त्री के प्रसङ्ग का फल कटु होता है तथा स्त्रियाँ सुगतिमार्ग की अर्गला रूप हैं एवं संसार में उतरने के मार्ग हैं तथा अविनयों की राजधानी हैं, और सैकडों कपटजालों से भरी हुई हैं एवं वे महामोहन शक्ति हैं' अतः वे उनके प्रसङ्ग की इच्छा नहीं करते हैं, ऐसे पुरुष दूसरे पुरुषों से उत्कृष्ट हैं और वे साधु हैं, वे पुरुष सबसे प्रथम समस्त द्वन्द्वों की निवृत्ति रूप मोक्ष को प्राप्त करते हैं। यहां "ह" शब्द अवधारण अर्थ में है इसलिए उन पुरुषों को सबसे प्रधान मोक्षगामी समझना चाहिए । आशय यह है कि जिन पुरुषों ने समस्त अविनयों के स्थानस्वरूप स्त्रीप्रसङ्ग को त्याग दिया है, वे ही पुरुष आदि मोक्ष हैं. अर्थात् वे प्रधानभूत मोक्षनामक पुरुषार्थ में उद्यत हैं (यहां आदि शब्द प्रधान अर्थ का वाचक है) वे पुरुष मोक्षरूप पुरुषार्थ में केवल उद्यत ही नहीं अपितु स्त्रीरूपी पाशबंधन से मुक्त हो जाने के कारण समस्त पाशबन्धनों से मुक्त हैं, इस कारण वे असंयम जीवन की कामना नहीं करते हैं तथा दूसरे भी परिग्रह आदि की इच्छा नहीं करते हैं । अथवा विषयभोग की इच्छा को त्यागकर उत्तम अनुष्ठान में तत्पर तथा मोक्ष में एकाग्र वे पुरुष दीर्घकाल तक जीने की इच्छा नहीं करते हैं ॥९॥ जीवितं पिट्ठओ किच्चा, अंतं पावंति कम्मुणं । कम्मुणा संमुहीभूता, जे मग्गमणुसासई ॥१०॥ छाया - जीवितं पृष्ठतः कृत्वाऽन्तं प्राप्नुवन्ति कर्मणाम् । कर्मणा सम्मुखीभूता, ये मार्गमनुशासति ॥ अन्वयार्थ - (जीवितं पिट्टओ किच्चा) जीवन को पीछे करके (कम्मुणं अंतं पार्वति) साधु कर्म के अन्त को प्राप्त करते हैं (कम्मुणा संमुहीभूता) वे पुरुष विशिष्ट कर्म के अनुष्ठान से मोक्ष के संमुखीभूत हैं (जे मग्गमणुसासई) जो मोक्षमार्ग की शिक्षा देते हैं। भावार्थ - साधु पुरुष जीवन से निरपेक्ष होकर ज्ञानावरणीयादि कर्मों के अन्त को प्राप्त करते हैं। वे पुरुष उत्तम अनुष्ठान के द्वारा मोक्ष के सम्मुख हैं, जो मोक्षमार्ग की शिक्षा देते हैं। टीका - 'जीवितम्' असंयमजीवितं 'पृष्ठतः' कृत्वा अनादृत्य प्राणधारणलक्षणं वा जीवितमनादृत्य सदनुष्ठानपरायणाः 'कर्मणां' ज्ञानवरणादीनाम् 'अन्तं' पर्यवसानं प्राप्नुवन्ति, अथवा 'कर्मणा' सदनुष्ठानेन जीवितनिरपेक्षाः संसारोदन्वतोऽन्तंसर्वद्वन्द्वोपरमरूपं मोक्षाख्यमाप्नुवन्ति, सर्वदुःखविमोक्षलक्षणं मोक्षमप्राप्ता अपि कर्मणा-विशिष्टानुष्ठानेन मोक्षस्य संमुखीभूताघातिचतुष्टयक्षयक्रियया उत्पन्नदिव्यज्ञानाः शाश्वतपदस्याभिमुखीभूताः, क एवंभूता इत्याह-ये विपच्यमानतीर्थकृन्नामकर्माण: समासादितदिव्यज्ञाना 'मार्ग मोक्षमार्ग ज्ञानदर्शनचारित्ररूपम् 'अनुशासन्ति' सत्त्वहिताय प्राणिनां प्रतिपादयन्ति स्वतश्चानतिष्ठन्तीति ॥१०॥ टीकार्थ - असंयम जीवन अथवा प्राणधारणरूप जीवन का अनादर कर उत्तम अनुष्ठान में रत रहनेवाले पुरुष ज्ञानावरणीय आदि कर्मा का अन्त (नाश) करते हैं । अथवा जीवन से निरपेक्ष होकर उत्तम अनुष्ठान में रत पुरुष संसार सागर के अन्त स्वरूप सब द्वन्द्वों का अभावरूप मोक्ष को प्राप्त करते हैं । यद्यपि वे पुरुष समस्त दुःखों की निवृत्तिरूप मोक्ष को प्राप्त नहीं हैं तथापि वे विशिष्ट क्रिया के द्वारा मोक्ष के सम्मुख हैं, वे पुरुष चार प्रकार ६१२

Loading...

Page Navigation
1 ... 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364