Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 325
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पश्चदशमध्ययने गाथा ४-५ पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् पुरुष सर्वज्ञ है, जो तत्त्वदर्शी होकर प्राणियों में मैत्री की स्थापना करता है । अत एव कहा है कि[जो पुरुष दूसरे की स्त्री को माता के समान और दूसरे के द्रव्य को पाषाण के समान तथा] सब प्राणियों को अपने समान देखता है, वही तत्त्वदर्शी है ||३|| - यथा भूतेषु मैत्री संपूर्णभावमनुभवति तथा दर्शयितुमाह प्राणियों के साथ जिस प्रकार पूर्ण मैत्री हो सकती है सो बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं भूएहिं न विरुज्झेज्जा, एस धम्मे बुसीमओ बुसिमं जगं परित्राय, अस्सिं जीवितभावणा छाया - भूतैर्न विरुद्धयेतैष धर्मः साधोः । साधुर्जगत्परिज्ञायास्मिन् जीवितभावना ॥ अन्वयार्थ - (भूएहिं न विरुज्झेज्जा) प्राणियों के साथ वैर न करे ( एस बुसीमओ धम्मे) यह साधुओं का धर्म है। (बुसिमं जगं परित्राय) साधु जगत् के स्वरूप को जानकर ( अस्सिं जीवितभावणा) शुद्ध धर्म की भावना करे । भावार्थ प्राणियों के साथ विरोध न करना साधु का धर्म है । इसलिए जगत् के स्वरूप को जानकर साधु धर्म की भावना करे । - 11811 टीका 'भूतैः' स्थावरजङ्गमैः सह 'विरोधं न कुर्यात् तदुपघातकारिणमारम्भं तद्विरोधकारणं दूरतः परिवर्जयेदित्यर्थः स 'एषः' अनन्तरोक्तो भूताविरोधकारी 'धर्मः ' स्वभाव: पुण्याख्यो वा 'बुसीमओ'त्ति तीर्थकृतोऽयं सत्संयमवतो वेति । तथा सत्संयमवान् साधुस्तीर्थकृद् वा 'जगत्' चराचरभूतग्रामाख्यं केवलालोकेन सर्वज्ञप्रणीतागमपरिज्ञानेन वा 'परिज्ञाय' सम्यगवबुध्य 'अस्मिन्' जगति मौनीन्द्रे वा धर्मे भावनाः पञ्चविंशतिरूपा द्वादशप्रकारा वा या अभिमतास्ता 'जीवितभावना' जीवसमाधानकारिणी: सत्संयमाङ्गतया मोक्षकारिणीर्भावयेदिति ॥४॥ टीकार्थ साधु, स्थावर और जङ्गम सब प्रकार के प्राणियों के साथ विरोध न करे । प्राणियों का विघात करनेवाला आरम्भ है और वही उनके साथ विरोध का कारण है, इसलिए साधु उसे दूर से ही त्याग करे । भूतों के साथ विरोध न करनेवाला यह पूर्वोक्त धर्म यानी स्वभाव अथवा पुण्यकार्य तीर्थङ्कर का है, अथवा उत्तम संयम पालन साधु का है, इसी तरह उत्तम संयमवान साधु अथवा तीर्थंकर चराचर जगत् को सर्वज्ञ प्रणीत आगम के द्वारा अथवा केवलज्ञान के द्वारा अच्छी तरह जानकर अपने आत्मा को शान्ति देनेवाली, उत्तम संयम के अङ्गभूत तथा मोक्ष के कारण और सत्पुरुषों के इष्ट जो इस जगत में अथवा मुनीन्द्र सम्बन्धी धर्म में २५ प्रकार की या द्वादश भावनायें हैं, उनकी भावना करे ||४|| सद्भावनाभावितस्य यद्भवति तद्दर्शयितुमाह - उत्तम भावना करनेवाले पुरुष की जो गति होती है, उसे बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । नावा व तीरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टइ छाया - भावनायोगशुद्धात्मा, जले नौरिवाहितः । नौरिव तीरसम्पाः सर्वदुःखात् त्रुट्यति ॥ अन्वयार्थ - ( भावणाजोगसुद्धप्पा) भावनारूपी योग से शुद्ध आत्मावाला पुरुष (जले णावा व आहिया) जल में नाव के समान कहा गया है । ( नावा व तीरसंपन्ना) तीर को प्राप्त करके जैसे नाव विश्राम करती है (सव्वदुक्खा तिउट्टइ) इसी तरह उक्त पुरुष सब दुःखों से मुक्त हो जाता है । भावार्थ 11411 पूर्वोक्त पच्चीस प्रकार की अथवा बारह प्रकार की भावना से जिसका आत्मा शुद्ध हो गया है, वह ६०७

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