Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 326
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा ६ पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् पुरुष जल में नाव के समान कहा गया है। जैसे तीर भूमि को पाकर नाव विश्राम करती है, इसी तरह वह पुरुष सब दुखों से छुट जाता है। टीका - भावनाभिर्योगः-सम्यक्प्रणिधानलक्षणो भावनायोगस्तेन शुद्ध आत्मा-अन्तरात्मा यस्य स तथा, स च भावनायोगशुद्धात्मा सन् परित्यक्तसंसारस्वभावो नौरिव जलोपर्यवतिष्ठते संसारोदन्वत इति, नौरिव- यथा जले निमज्जनत्वेन प्रख्याता एवमसावपि संसारोदन्वति न निमज्जतीति । यथा चासौ निर्यामकाधिष्ठिताऽनुकूलवातेरिता समस्तद्वन्द्वापगमात्तीरमास्कन्दत्येवमायतचारित्रवान् जीवपोतः सदागमकर्णधाराधिष्ठितस्तपोमारुतवशात्सर्व-दुःखात्मकात्संसारात् 'त्रुटयति' अपगच्छति मोक्षाख्यं तीरं सर्वद्वन्द्वोपरमरूपमवाप्नोतीति ॥५॥ टीकार्थ - उत्तम भावना के योग से जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, वह पुरुष संसार के स्वभाव को छोड़कर जल में नाव की तरह संसार सागर के ऊपर रहता है । जैसे नाव जल में नहीं डूबती है, इसी तरह वह पुरुष भी संसार सागर में नहीं डूबता है। जैसे उत्तम कर्णधार से युक्त और अनुकूल पवन से प्रेरित नाव सब द्वन्द्वो से मुक्त होकर तीर पर प्राप्त होती है, इसी तरह उत्तम चारित्रवान् जीवरूपी नाव उत्तम आगमरूप कर्णधार से युक्त तथा तपरूपी पवन से प्रेरित होकर दुःखात्मक संसार से छुटकर समस्त दुःखों का अभावरूप मोक्ष को प्राप्त करती है ॥५॥ - अपि च - - और भी तिउट्टई उ मेधावी, जाणं लोगंसि पावगं । तुटुंति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुव्वओ ॥६॥ छाया - त्रुटयति तु मेधावी जानन् लोके पापकम् । त्रुटयन्ति पापकर्माणि नवं कर्माकुर्वतः ॥ अन्वयार्थ - (लोगसि पावगं जाणं) लोक में पापकर्म को जाननेवाला (मेधावी उ तिउट्टई) बुद्धिमान् पुरुष सब बन्धनों से छुट जाता है। (नवं कम्ममकुव्वओ) नूतन कर्म न करते हुए पुरुष के (पावकम्माणि तुटृति) सभी पाप कर्म छुट जाते हैं । ___ भावार्थ - लोक में पाप कर्म को जाननेवाला पुरुष सब बन्धनों से मुक्त हो जाता है तथा नूतन कर्म न करनेवाले पुरुष के सभी पापकर्म छुट जाते हैं। टीका - स हि भावनायोगशुद्धात्मा नौरिव जले संसारे परिवर्तमानस्त्रिभ्योमनोवाक्कायेभ्योऽशुभेभ्यस्त्रुटयति, यदिवा अतीव सर्वबन्धनेभ्यस्त्रुटयति-मुच्यते अतित्रुटयति-संसारादतिवर्तते 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितः सदसद्विवेकी वाऽस्मिन् 'लोके' चतुर्दशरज्ज्वात्मके भूतग्रामलोके वा यत्किमपि 'पापकं' कर्म सावद्यानुष्ठानरूपं तत्कार्य वा अष्टप्रकारं कर्म तत् ज्ञपरिज्ञया जानन् प्रत्याख्यानपरिज्ञया च तदुपादानं परिहरन् ततस्त्रुटयति, तस्यैवं लोकं कर्म वा जानतो नवानि कर्माण्यकुर्वतो निरुद्धाश्रवद्वारस्य विकृष्टतपश्चरणवतः पूर्वसंचितानि कर्माणि त्रुटयन्ति निवर्तन्ते वा नवं च कर्माकुर्वतोऽशेषकर्मक्षयो भवतीति ॥६॥ टीकार्थ - भावनायोग से शुद्ध आत्मावाला पुरुष जल में नाव की तरह संसार में वर्तमान रहता हुआ मन, वचन और काय तीनों के द्वारा अशुभ यानी पाप से छुट जाता है। अथवा वह सब प्रकार के बन्धनों से अत्यन्त मुक्त हो जाता है । वह संसार सागर का उल्लङ्घन कर जाता है। शास्त्रोक्त मर्यादा में स्थित अथवा सत् और असत् का विवेकी पुरुष चौदह रज्जुस्वरूप तथा जीवों से पूर्ण इस लोक में सावधानुष्ठानरूप पाप कर्म को अथवा उसके कार्यरूप आठ प्रकार के कर्मों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उनके कारणों को त्यागता हुआ उनसे मुक्त हो जाता है। इस प्रकार लोक अथवा कर्म को जानते हुए तथा नवीन कर्म न करते हुए एवं आश्रवद्वारों को रोके हुए और उत्कृष्ट तप करते हुए पुरुष के पूर्वसञ्चित पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं। जो पुरुष नूतन कर्म नहीं करता है, उसके समस्त कर्मों का क्षय हो जाता हैं ॥६॥ ६०८

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