Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 304
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा १५ ग्रन्थाध्ययनम् ये चैतद्भेदाः सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकरूपा दशविधप्राणधारणात्प्राणिनस्तेषु, 'सदा' सर्वकालम्, अनेन तु कालमधिकृत्य विरतिरभिहिता, यतः परिव्रजेत् - परिसमन्ताद् व्रजेत् संयमानुष्ठायी भवेत्, भावप्राणातिपातविरतिं दर्शयति-स्थावरजङ्गमेषु प्राणिषु तदपकारे उपकारे वा मनागपि मनसा प्रद्वेषं न गच्छेद् आस्तां तावद्दुर्वचनदण्डप्रहारादिकं, तेष्वपकारिष्वपि मनसाऽपि न मङ्गुलं चिन्तयेद्, 'अविकम्पमान: ' संयमादचलन् सदाचारमनुपालयेदिति, तदेवं योगत्रिककरणत्रिकेण द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपां प्राणातिपातविरतिं सम्यगरक्तद्विष्टतयाऽनुपालयेद्, एवं शेषाण्यपि महाव्रतान्युत्तरगुणांश्च ग्रहणासेवनाशिक्षासमन्वितः सम्यगनुपालयेदिति ॥१४॥ टीकार्थ इस गाथा में ऊपर, नीचे तथा तिरच्छी दिशा और विदिशाओं में रहनेवाले प्राणियों की हिंसा का निषेध करके क्षेत्र प्राणातिपात से विरत होने का उपदेश किया है, अब द्रव्य प्राणातिपात से विरत होने का उपदेश करते हैं । जो भय पाते हैं, वे त्रस कहलाते हैं, वे तेज, वायु और द्वीन्द्रिय आदि हैं तथा जो स्थावरनाम कर्म के उदय में वर्तमान हैं, ऐसे पृथिवी, जल और वनस्पति तथा उनके भेद सूक्ष्म, बादर, पर्य्याप्त और अपर्याप्त स्थावर कहलाते हैं । जो दश प्रकार के प्राणों को धारण करते हैं, इसलिए वे प्राणी कहलाते हैं, इन स्थावर एवं त्रस प्राणियों की सब काल में रक्षा करता हुआ साधु यत्नपूर्वक संयम का अनुष्ठान करे । यहाँ सब काल में प्राणियों की रक्षा का उपदेश देकर शास्त्रकार ने काल प्राणातिपात से विरति का कथन किया है, अब भाव प्राणातिपात से विरति का उपदेश करते हैं- स्थावर या जङ्गम प्राणी अपना उपकार करें अथवा अपकार करें परन्तु साधु को उन पर थोड़ा भी मन में द्वेष न लाना चाहिए फिर उन्हें दुर्वचन कहना तथा डंडे से मारने आदि की तो बात ही कहाँ हैं ? । वे यदि अपकार करें तो भी उनके अमङ्गल की कामना मन से भी नहीं करनी चाहिए । इस प्रकार संयम से विचलित न होता हुआ साधु सदाचार का पालन करे तथा पूर्वोक्त प्रकार से तीन योग और तीन करणों से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप प्राणातिपात विरति को साधु रागद्वेष रहित होकर पालन करे एवं ग्रहण तथा आसेवना शिक्षा से युक्त होकर शेष महाव्रत तथा उत्तरगुणों का साधु अच्छी तरह से पालन करे ||१४|| - गुरोरन्तिके वसतो विनयमाह - अब शास्त्रकार गुरु के निकट निवास करनेवाले शिष्य को विनय की शिक्षा देते हैं कालेण पुच्छे समियं पयासु, आइक्खमाणो दवियस्स वित्तं । तं सोयकारी पुढो पवेसे, संखा इमं केवलियं समाहिं - ।।१५।। छाया - कालेन पृच्छेत्समितं प्रजासु, आचक्षमाणो द्रव्यस्य वित्तम् । तच्छ्रोत्रकारी पृथक् प्रवेशयेत्, संख्यायेमं केवलिकं समाधिम् ॥ अन्वयार्थ - (कालेण पयासु समियं पुच्छे ) साधु अवसर देखकर सदाचारी आचार्य्य से प्रजाओं के विषय में पूछे (दवियस्स वित्तं आइक्खमाणो) सर्वज्ञ के आगम को बतानेवाले आचार्य की साधु पूजा करे। (तं सोयकारी पुढो पवेसे) तथा आचार्य की आज्ञा मानता हुआ उसके उपदेश को हृदय में स्थापित करे । (इमं केवलियं समाहिं संखा ) तथा आगे कहे जानेवाले केवली के सन्मार्ग को अच्छी तरह समझकर उसे हृदय मैं धारण करे । भावार्थ - साधु अवसर देखकर सदाचारी आचार्य्य से प्राणियों के सम्बन्ध में प्रश्न करे और सर्वज्ञ के आगम का उपदेश करनेवाले आचार्य का सन्मान करे तथा आचार्य्यं की आज्ञानुसार प्रवृत्ति करता हुआ साधु आचार्य्यं के द्वारा कहे हुए केवली सम्बन्धी ज्ञान को सुनकर उसे हृदय में धारण करे । ५८६ टीका - सूत्रमर्थं तदुभयं वा विशिष्टेन प्रष्टव्यकालेनाचार्यादेरवसरं ज्ञात्वा प्रजायन्त इति प्रजा - जन्तवस्तासु प्रजासु-जन्तुविषये चतुर्दशभूतग्रामसंबद्धं कञ्चिदाचार्यादिकं सम्यगितं - सदाचारानुष्ठायिनं सम्यग् वा समन्ताद्वा जन्तुगतं पृच्छेदिति । स च तेन पृष्ट आचार्यादिराचक्षाणः शुश्रूषयितव्यो भवति, यदाचक्षाणस्तद्दर्शयति- मुक्तिगमनयोग्यो भव्यो 1. शत्रोरुपकारे बाह्ये वा दुरायतिके स्वस्य, अन्यथोपकारे द्वेषासंभवात् ।

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