Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 309
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा २० ग्रन्थाध्ययनम् चौदह पूर्वधारियों में से कोई एक हो तथा आचार्य से शिक्षा पाकर प्रतिभा सम्पन्न और पदार्थ ज्ञान में प्रवीण हो, ऐसा साधु किसी कारण वश यदि श्रोता कुपित हो तो भी वह सूत्रार्थ को न छिपावे अर्थात् वह सूत्र की अन्यथा व्याख्या न करे अथवा वह अपने आचार्य को न छिपावे अथवा धर्म कथा कहता हुआ साधु वस्तुतत्त्व को न छिपावे अथवा वह अपने गुणों की उत्कृष्टता बताने के अभिप्राय से दूसरे के गुणों को न छिपावे एवं वह दूसरे के गुणों को दूषित न करे तथा अपसिद्धान्त के द्वारा शास्त्र के अर्थ की व्याख्या न करे एवं "मैं समस्त शास्त्रों को जाननेवाला हूँ तथा मैं सब लोक में प्रसिद्ध और समस्त संशयों को दूर करनेवाला हूँ, मेरे समान हेतु और यक्तियों के द्वारा पदार्थ की व्याख्या करनेवाला कोई नहीं हैं ।" ऐसा मान यानी गर्व साधु अपने को बहुश्रुत और तपस्वी रूप से प्रकाशित न करे और च शब्द से दूसरे पूजा और सत्कार आदि का त्याग करे । तथा शास्त्रवेत्ता साधु हास्यमय वचन न बोले अथवा किसी कारण वश श्रोता यदि पदार्थ को न समझे तो उसकी हँसी न करे तथा "तुम पुत्रवान, धनवान् [धर्मवान] और दीर्घायु हो" इत्यादि आशीर्वाद का वाक्य किसी को न कहे किन्तु भाषा समिति से युक्त होकर रहे ॥१९॥ - किंनिमित्तमाशीर्वादो न विधेय इत्याह - - साधु को किस कारण से आशीर्वाद नहीं देना चाहिए सो शास्त्रकार बताते हैं - भूताभिसंकाइ दुगुंछमाणे, ण णिव्वहे मंतपदेण गोयं । ण किंचि मिच्छे मणुए पयासुं, असाहुधम्माणि ण संवएज्जा ॥२०॥ छाया - भूताभिशड्कया जुगुप्समानो, न निर्वहन्मत्रपदेन गोत्रम् । न किचिदिच्छेन्मनुजः प्रजासु, असाथुधर्माश संवदेत् ॥ अन्वयार्थ - (भूताभिसंकाइ दुगुंछमाणे) साधु प्राणियों के विनाश की शंका से तथा पाप से घृणा करता हुआ किसी को आशीर्वाद न देवे (मंतपदेण गोयं ण णिव्वहे) तथा साधु मन्त्र आदि के द्वारा वाक्यसंयम को निःसार न बनावे (मणुए पयासु ण किंचि मिच्छे) साधु पुरुष प्रजाओं से किसी वस्तु की इच्छा न करे (असाहुधम्माणि ण संवएज्जा) एवं वह असाधु के धर्म का उपदेश न करे । भावार्थ - पाप से घृणा करता हुआ साधु, प्राणियों के विनाश की शङ्का से किसी को आशीर्वाद न देवे तथा मन्त्रविद्या का प्रयोग करके अपने संयम को निःसार न बनावे एवं वह प्रजाओं से किसी वस्तु की इच्छा न करे तथा वह असाधुओं के धर्म का उपदेश न करे । टीका - भूतेषु-जन्तुषूपमर्दशङ्का भूताभिशङ्का तयाऽऽशीर्वाद 'सावा' सपापं जुगुप्समानो न ब्रूयात् तथा गास्त्रायत इति गोत्रं-मौनं वाक्संयमस्तं 'मन्त्रपदेन' विद्यापमार्जनविधिना 'न निर्वाहयेत्' न निःसारं कुर्यात् । यदिवा गोत्रं-जन्तुनां जीवितं 'मन्त्रपदेन' राजादिगुप्तभाषणपदेन राजादीनामुपदेशदानतो 'न निर्वाहयेत्' नापनयेत्, एतदुक्तं भवति-न राजादिना साधू जन्तुजीवितोपमर्दकं मन्त्रं कुर्यात्, तथा प्रजायन्त इति प्रजाः-जन्तवस्तासु प्रजासु 'मनुजो' मनुष्यो व्याख्यानं कुर्वन् धर्मकथां वा न किमपि लाभपूजासत्कारादिकम् ‘इच्छेद्' अभिलषेत्, तथा कुत्सितानाम्असाधूनां धर्मान्-वस्तुदानतर्पणादिकान् 'न संवदेत्' न ब्रूयाद् यदिवा नासाधुधर्मान् ब्रुवन् संवादयेद् अथवा धर्मकथां व्याख्यानं वा कुर्वन् प्रजास्वात्मश्लाघारूपां कीर्ति नेच्छेदिति ॥२०॥ टीकार्थ - पाप सहित वस्तु में घृणा करता हुआ साधु प्राणियों के विनाश की आशङ्का से किसी को आशीर्वाद वाक्य न कहे । जो वाणी की रक्षा करता है, उसे गोत्र कहते हैं, वह मौन अर्थात् वाक्संयम है । उस वाक्संयम को साधु मन्त्र का प्रयोग करके निःसार न बनावे । अथवा प्राणियों के जीवन को गोत्र कहते हैं, उस जीवन को साधु राजा आदि के साथ गुप्त भाषण करके अर्थात् उपदेश देकर नाश न करे । आशय यह है कि- साधु, जिससे प्राणियों का नाश हो ऐसा मन्त्र ऐसी विचारणा] राजा आदि के साथ न करे । जन्तुओं को प्रजा कहते हैं, उनके मध्य में धर्म की कथा कहता हुआ साधु उनसे लाभ, पूजा और सत्कार आदि की इच्छा न करे तथा असाधुओं ५९१

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