Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 301
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा ११ ग्रन्थाध्ययनम् पुरुष को भी किसी के द्वारा सन्मार्ग की शिक्षा पाकर क्रोध नहीं करना चाहिए, किन्तु इस पुरुष ने मेरे पर कृपा की है, यह मानना चाहिए । तथा उसको यह समझना चाहिए कि जैसे पिता अपने पुत्र को अच्छे मार्ग की शिक्षा देता है, इसी तरह ये वृद्धलोग मुझ को सन्मार्ग में चलने की शिक्षा देते हैं, अतः इसमें मेरा ही कल्याण है ॥१०॥ - पुनरप्यस्यार्थस्य पुष्टयर्थमाह - - फिर भी शास्त्रकार इसी अर्थ की पुष्टि के लिए कहते हैं - अह तेण मूढेण अमूढगस्स, कायव्व पूया सविसेसजुत्ता । एओवमं तत्थ उदाहु वीरे, अणुगम्म अत्थं उवणेति सम्म ॥११॥ छाया - अथ तेन मूढेनामूढस्य, कर्तव्या पूना सविशेषयुक्ता । एतामुपमां तत्रोदाहृतवान् वीरः, अनुगम्यार्थमुपनयति सम्यक् ।। अन्वयार्थ - (अह तेण मूढेण) इसके पश्चात् उस मूढ पुरुष को (अमूढगस्स सविसेसजुत्ता पूया कायव्ब) अमूढ पुरुष की विशेष रूप से पूजा करनी चाहिए। (तत्य वीरे एओवमं उदाहु) इस विषय में वीर प्रभु ने यही उपमा बताई है (अत्थं अणुगम सम्म उवणेति) पदार्थ को समझकर प्रेरणा के उपकार को साधु अपने में स्थापित करे । भावार्थ - जैसे मार्ग भ्रष्ट पुरुष मार्ग बतानेवालें की विशेष रूप से पूजा करता है, इसी तरह सन्मार्ग का उपदेश देनेवाले पुरुष का संयम पालन में भूल करनेवाला साधु विशेष रूप से सत्कार करे और उसके उपदेश को हृदय में स्थापित करके उसका उपकार माने, यही उपदेश तीर्थकर और गणधरों ने दिया हैं। ___टीका - 'अथे' त्यानन्तर्यार्थे वाक्योपन्यासार्थे वा, यथा 'तेन' मूढेन सन्मार्गावतारितेन तदनन्तरं तस्य 'अमूढस्य' सत्पथोपदेष्टुः पुलिन्दादेरपि परमुपकारं मन्यमानेन पूजा विशेषयुक्ता कर्तव्या, एवमेतामुपमाम् 'उदाहृतवान्' अभिहितवान् 'वीरः' तीर्थकरोऽन्यो वा गणधरादिकः 'अनुगम्य' बुद्ध्वा 'अर्थ' परमार्थ चोदनाकृतं परमोपकारं सम्यगात्मन्युपनयति, तद्यथा-अहमनेन मिथ्यात्ववनाज्जन्मजरामरणाद्यनेकोपद्रवबहुलात्सदुपदेशदानेनोत्तारितः, ततो मयाऽस्य परमोपकारिणोऽभ्युत्थानविनयादिभिः पूजा विधेयेति । अस्मिन्नर्थे बहवो दृष्टान्ताः सन्ति, तद्यथा गेहमि अग्गिजालाउलंमि जह णाम डज्झमाणंमि । जो बोहेई सुयंतं सो तस्स जणो परमबंधू ||१|| जह वा विससंजुत्तं भत्तं निद्धमिह भोचुकामस्स । जोवि सदोसं साहइ सो तरस जणो परमबंधू।।२।/"||११|| टीकार्थ - यहाँ 'अथ' शब्द पश्चात् अर्थ में अथवा वाक्य के आरम्भ अर्थ में आया है। जैसे अच्छे मार्ग में उतारे हुए मूढ़ पुरुष को अच्छे मार्ग की शिक्षा देनेवाले किरात आदि का भी परम उपकार मानकर विशेष रूप से पूजा करनी चाहिए, इसी तरह भूल करनेवाले साधु को धर्मोपदेशक का सत्कार करना चाहिए । तीर्थङ्कर वीर तथा दूसरे गणधरों ने इस विषय में यही उपमा बताई है। संयम पालन में भूल करनेवाला साधु सन्मार्ग की शिक्षा देनेवाले के उपदेश को अच्छी तरह समझकर उसके शिक्षा जनित परम उपकार को अपने हृदय में स्थापित करे और यह समझे कि- "इस पुरुष ने मुझ को उत्तम उपदेश देकर जन्म, जरा और मरण आदि अनेक उपद्रवों से भरे हुए मिथ्यात्व रूपी वन से पार किया है, इसलिए इस परम उपकारी की अभ्युत्थान और विनय आदि के द्वारा विशेष रूप से पूजा करनी चाहिए ।" इस विषय में बहुत से दृष्टान्त हैं, जैसे कि ____ अग्नि से जलते हुए मकान में सोये हुए पुरुष को जो जगाता है, वह उसका परमबन्धु है तथा विष से मिश्रित मधुर आहार खाने के लिए तत्पर पुरुष को जो उस आहार को सदोष बताकर खाने से निवृत्त करता है, वह उसका परमबन्धु है। इसी तरह संयम पालन में भूल करनेवाले साधु को जो सन्मार्ग का उपदेश करता है, वह उसका परमबन्धु है ॥१॥ 1. गेहेऽग्रिज्वालाकुले यथा नाम दह्यमाने । यो बोधयति सुप्तं स तस्य जनः परमबान्धवः ।।१॥ यथा वा विषसंयुक्तं भक्तं सिग्धं इह भोक्तुकामस्य योऽपि सदोष साधयति स तस्य परमबन्धुर्जनः ॥२॥ ५८३

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