Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 297
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा ७ प्रमाद न करे और किसी विषय में भ्रम होने पर गुरु से पूछकर उससे पार हो जाय । टीका 'शब्दान्' वेणुवीणादिकान् मधुरान् श्रुतिपेशलान् 'श्रुत्वा' समाकर्ण्याथवा 'भैरवान्' भयावहान कर्णकटूनाकर्ण्य शब्दान् आश्रवति तान् शोभनत्वेनाशोभनत्वेन वा गृह्णातीत्याश्रवो नाश्रवोऽनाश्रवः, तेष्वनुकूलेषु प्रतिकूलेषु श्रवणपथमुपगतेषु शब्देष्वनाश्रवो - मध्यस्थो रागद्वेषरहितो भूत्वा परि - समन्ताद् व्रजेत् परिव्रजेत्-संयमानुष्ठायी भवेत्, तथा 'निद्रां च' निद्राप्रमादं च 'भिक्षुः ' सत्साधुः प्रमादाङ्गत्वान्न कुर्यात्, एतदुक्तं भवति-शब्दाश्रवनिरोधेन विषयप्रमादो निषिद्धो निद्रानिरोधेन च निद्राप्रमादः चशब्दादन्यमपि प्रमादं विकथाकषायादिकं न विदध्यात् । तदेवं गुरुकुलवासात् स्थानशयनासनसमिति - गुप्तिष्वागतप्रज्ञः प्रतिषिद्धसर्वप्रमादः सन् गुरोरुपदेशादेव कथंकथमपि विचिकित्सांचित्तविप्लुतिरूप [वि]तीर्णः - अतिक्रान्तो भवति, यदिवा मद्गृहीतोऽयं पञ्चमहाव्रतभारोऽतिदुर्वहः कथं कथमप्यन्तं गच्छेद् ?, इत्येवंभूतां विचिकित्सां गुरुप्रसादाद्वितीर्णो भवति, अथवा यां काञ्चिच्चित्तविप्लुतिं देशसर्वगतां तां कृत्स्नां गुर्वन्तिके वसन् वितीर्णो भवति अन्येषामपि तदपनयनसमर्थः स्यादिति ॥६॥ किञ्चान्यत् - टीकार्थ कानों को मधुर लगनेवाले वीणा और वेणु आदि के शब्दों को अथवा कानों को अप्रिय लगनेवाले भयंकर शब्दों को सुनकर साधु उनमें आश्रव न करे । जो वस्तु को भला और बुरा रूप से ग्रहण करता है, उसे आश्रव कहते हैं, साधु उससे रहित हो जाय । आशय यह है कि- अनुकूल या प्रतिकूल शब्द साधु के कान में पड़े तो वह उनमें रागद्वेष न करता हुआ मध्यस्थवृत्ति धारण करके संयम का अनुष्ठान करे । तथा उत्तम साधु प्रमाद के अङ्गरूप निद्रा प्रमाद न करे । यहाँ शब्दरूप आश्रव का निरोध कहकर विषय, प्रमाद का निषेध किया हैं और निद्रा का निरोध बताकर निद्रारूप प्रमाद का निषेध किया है एवं च शब्द से दूसरे विकथा और कषाय आदि प्रमादों को न करना चाहिए, यह उपदेश किया है । इस प्रकार साधु गुरुकुल में निवास करने से ही स्थान, शयन, आसन, समिति और गुप्तियों में विवेकयुक्त तथा सब प्रमादों को छोड़ता हुआ गुरु के उपदेश से ही चित्त के भ्रम से भी पार हो जाता है । अथवा साधु के मन में जो यह चिन्ता लगी रहती है कि " मेरे द्वारा ग्रहण किया हुआ यह पाँच महाव्रत रूपी भार दुःख से वहन करने योग्य है इसलिए यह बड़ी मुश्किल से पार किया जा सकेगा ।" इसको वह गुरु की कृपा से पार कर जाता है । अथवा गुरुकुल में निवास करनेवाला पुरुष देश से या समस्त रूप से जो कुछ सन्देह होता है, [गुरु से समाधान पाकर उससे वह पार हो जाता है और दूसरे के सन्देह को मिटाने में भी समर्थ होता है ||६|| डहरेण वुड्ढेणऽणुसासिए उ, रातिणिएणावि समव्वएणं । सम्मं तयं थिरओ णाभिगच्छे, णिज्जंतए वावि अपारए से छाया - डहरेण वृद्धेनानुशासितस्तु रत्नाधिकेनाऽपि समवयसा । सम्यक्तया स्थिरतो नाभिगच्छेशीयमानो वाप्यपारगः सः ॥ ग्रन्थाध्ययनम् - - ॥७॥ अन्वयार्थ - (डहरेण वड्ढेणऽणुसासिए) किसी प्रकार का प्रमाद होने पर छोटे या बड़े साधु के द्वारा शिक्षा दिया हुआ (रातिणिएणावि समव्वएणं) तथा अपने से प्रव्रज्या में श्रेष्ठ अथवा समान अवस्थावाले पुरुष के द्वारा भूल सुधारने के लिए कहा हुआ जो पुरुष (सम्मं तयं थिरओ णाभिगच्छे अच्छी तरह स्थिरता के साथ स्वीकार नहीं करता है ( णिज्जंतए वावि अपारए से) वह संसार के प्रवाह में बह जाता है । वह उसे पार करने में समर्थ नहीं होता है । भावार्थ - कभी प्रमादवश भूल होने पर अपने से बड़े छोटे अथवा प्रव्रज्या में बड़े या समान अवस्थावाले साधु के द्वारा भूल सुधारने के लिए कहा हुआ जो साधु उसे स्वीकार न करके क्रोध करता है, वह संसार के प्रवाह में बह जाता है, वह संसार को पार करने में समर्थ नहीं होता है । टीका स गुर्वन्ति निवसन् क्वचित् प्रमादस्खलितः सन् वयःपर्यायाभ्यां क्षुल्लकेन - लघुना 'चोदितः ' प्रमादाचरणं प्रति निषिद्ध:, तथा 'वृद्धेन वा' वयोऽधिकेन श्रुताधिकेन वा 'अनुशासितः' अभिहितः, तद्यथा ५७९

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