Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 250
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा १९ श्रीसमवसरणाध्ययनम् जे आयओ परओ वावि णच्चा, अलमप्पणो होति अलं परेसिं । तं जोइभूतं च सयावसेज्जा, जे पाउकुज्जा अणुवीति धम्म ॥१९॥ छाया - य आत्मनः परतोवाऽपि ज्ञात्वाऽलमात्मनो भवत्यलं परेषाम् । तं ज्योतिर्भूतश सदा वसेद् ये प्रादुष्कुर्युरनुविचिन्त्य धर्मम् ॥ अन्वयार्थ - (जे आयओ परओ वावि णच्चा) जो पुरुष स्वयं या दूसरे से धर्म को जानकर उसका उपदेश करता है (अप्पणो परेसिं य अलं होति) वह अपनी तथा दूसरे की रक्षा करने में समर्थ है। (जे अणुवीति धम्म पाउकुज्जा) जो सोच विचारकर धर्म को प्रकट करता है (तं जोइभूतं च सया वसेज्जा) उस ज्योतिः स्वरूप मुनि के पास सदा निवास करना चाहिए। भावार्थ - जो स्वयं या दूसरे के द्वारा धर्म को जानकर उसका उपदेश देता है, वह अपनी तथा दूसरे की रक्षा करने में समर्थ है। जो सोच विचारकर धर्म को प्रकट करता है, उसे ज्योतिःस्वरूप मुनि के निकट सदा निवास करना चाहिए। टीका - "यः" स्वयं सर्वज्ञ आत्मनस्त्रैलोक्योदरविवरवर्तिपदार्थदर्शी यथाऽवस्थितं लोकं ज्ञात्वा तथा यश्च गणधरादिकः "परतः" तीर्थकरादेर्जीवादीन् पदार्थान् विदित्वा परेभ्य उपदिशति स एवंभूतो हेयोपादेयवेदी "आत्मनस्त्रातुमलं" आत्मानं संसारावटात्पालयितुं समर्थो भवति, तथा परेषां च सदुपदेशदानतस्त्राता जायते, "तं" सर्वज्ञं स्वत एव सर्ववेदिनं तीर्थकरादिकं परतो वेदिनं च गणधरादिकं "ज्योतिर्भूत" पदार्थप्रकाशकतया चन्द्रादित्यप्रदीप-कल्पमात्महितमिच्छन् संसारदुःखोद्विग्नः कृतार्थमात्मानं भावयन् “सततम्" अनवरतम् “आवसेत्" सेवेत, गुर्वन्तिक एव यावज्जीवं वसेत्, तथा चोक्तम् - 1"नाणस्स होइ भागी थिरयरओ दसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं ण मुंचंति ||१||" क एवं कुर्युः ? इति दर्शयति - ये कर्मपरिणतिमनुविचिन्त्य "माणुस्सखेत्तजाइ" इत्यादिना दुर्लभां च सद्धर्मावाप्तिं सद्धर्म वा श्रुतचारित्राख्यं क्षान्त्यादिदशविधसाधुधर्म श्रावकधर्म वा "अनुविचिन्त्य" पर्यालोच्य ज्ञात्वा वा तमेव धर्म यथोक्तानुष्ठानतः "प्रादुष्कुर्युः" प्रकटयेयुः ते गुरुकुलवासं यावज्जीवमासेवन्त इति, यदिवा ये ज्योतिर्भूतमाचार्य सततमासेवन्ति त एवागमज्ञा धर्ममनुविचिन्त्य "लोकं" पञ्चास्तिकायात्मकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं वा प्रादुष्कुर्युरिति क्रिया ॥१९॥ किञ्चान्यत् - टीकार्थ - जो पुरुष स्वयं सर्वज्ञ है और तीनों लोक के समस्त पदार्थों को अपने आप ठीक - ठीक जानकर दूसरे को उपदेश करता है अथवा जो गणधर आदि तीर्थङ्कर आदि से जीवादि पदार्थों को जानकर दूसरे को उपदेश करता हैं, वह पुरुष त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य पदार्थों को जाननेवाला है और वही संसाररूपी जङ्गल से अपनी तथा दूसरे की रक्षा करता हैं। वे स्वयं सब पदार्थों को जाननेवाले सर्वज्ञ तीर्थङ्कर आदि तथा दूसरे से पदार्थों को जाननेवाले गणधर आदि ज्योतिः स्वरूप हैं । वे पदार्थों के प्रकाशक होने के कारण चन्द्रमा और सूर्य के समान हैं, अतः संसार से भय पाता हुआ और अपने कल्याण की इच्छा करनेवाला पुरुष अपने को कृतार्थ मानता हुआ उनके पास सदा निवास करे । वह सदा गुरु के पास ही निवास करे । अत एव आगम कहता है कि - "गुरु के पास निवास करने से जीव ज्ञान का भागी होता है और दर्शन तथा चारित्र में मजबूत होता है, इसलिए पुण्यात्मा पुरुष जीवनभर गुरुकुल में रहना नहीं छोड़ते हैं।" कौन ऐसा करते हैं ? यह शास्त्रकार दिखाते हैं - जो जीव कर्म के परिणाम को समझकर तथा मनुष्य देह, आर्यक्षेत्र और उत्तम जाति तथा उत्तम धर्म की प्राप्ति को दुर्लभ जानकर एवं श्रुतचारित्र रूप उत्तम धर्म तथा क्षान्ति आदि दशविध साधु धर्म को अथवा श्रावक धर्म को जानकर उसका अनुष्ठान करते हुए दूसरे को भी उपदेश करते हैं, वे पुरुष यावज्जीव गुरुकुल में निवास करते हैं अथवा जो ज्योतिःस्वरूप आचार्य की सदा सेवा करते 1. ज्ञानस्य भवति भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रे च । धन्या यावत्कथं गुरुकुलवासं न मुखन्ति ।।१।। ५३२

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