Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 267
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने प्रस्तावना श्रीयाथातथ्याध्ययनम् (उण्हे) रत्न कम्बल आदि द्रव्यों का यह स्वभाव है कि वे ग्रीष्म ऋतु में शीत और शीत ऋतु में गर्म होते हैं। अब भावतथ्य के विषय में कहते हैं - भावतथ्य नियम से छ: प्रकार के औदयिकभाव में जानना चाहिए। (वह भेद बताते हैं) कर्म के उदय से जो उत्पन्न होता है. उसे औदयिक कहते हैं । जीव जो गति आदि का अनुभव करता है, वह औदयिक भाव है। जो कर्म के उपशम से उत्पन्न होता है, उसे औपशमिक कहते हैं । अर्थात् कर्म का उदय न होना औपशमिक भाव है । एवं कर्म के क्षय होने से जो आत्मा का गुण प्रकट होता है, उसे क्षायिक भाव कहते हैं, वह अप्रतिपाती ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप है । जो कर्म के क्षय और उपशम से उत्पन्न होता है, वह क्षायोपशमिक है । वह देश से उदय और देश से उपशमरूप है । जो परिणाम से उत्पन्न होता है, वह पारिणामिक भाव है, वह जीवत्व, अजीवत्व और भव्यत्व आदि है । इन पाँच भावों के दो, तीन आदि के संयोग से उत्पन्न भाव सान्निपातिक कहलाता है. (इन्हीं छः भेदों में जाता है।) अथवा आत्मा के अन्दर रहनेवाला भावतथ्य चार प्रकार का है, जैसे कि- ज्ञान, दर्शन, चारित्र और विनयतथ्य। इनमें मति आदि पांच ज्ञानों के द्वारा जो वस्तु जैसी है, उसे उसी तरह सत्य समझना ज्ञानतथ्य है । तथा शङ्का आदि अतिचारों से रहित जीवादि तत्त्वों में विश्वास करना दर्शनतथ्य है । एवं बारह प्रकार के तप और सत्रह प्रकार के संयम की अच्छी तरह क्रिया करना चारित्रतथ्य है । तथा बयालीस प्रकार का विनय जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और औपचारिक रूप है, उसकी यथायोग्य क्रिया करना विनयतथ्य है । इन ज्ञान आदि का योग्य रीति से सेवन न करना अतथ्य है । इनमें यहाँ भावतथ्य का वर्णन है । अथवा प्रशस्त और अप्रशस्त भेद से भावतथ्य दो प्रकार का है, उनमें यहाँ प्रशस्त भावतथ्य का अधिकार है, यह दिखाने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं । जिस प्रकार से और जिस रीति से सूत्र बनाये गये है, उसी तरह से उनके अर्थ की व्याख्या करनी चाहिए और उसी तरह से उनका अनुष्ठान करना चाहिए, यह नियुक्तिकार दिखाते हैं - आचरण यानी क्रिया को चरण कहते हैं, अथवा सिद्धान्त सूत्र का चारित्र ही आचरण है, इसलिए जैसा सूत्र है, वेसा ही चारित्र है और वही अनुष्ठान करने योग्य है, इसी को याथातथ्य कहते हैं । अब नियुक्तिकार गाथा के पूर्वार्ध के अभिप्राय को ही उत्तरार्ध के द्वारा दिखाते हैं - जो विषय यहाँ प्रकृत यानी वर्णनीय है अर्थात् जिस विषय को लेकर सूत्र बनाये गये हैं, उस विषय की ठीक-ठीक व्याख्या करना अथवा उस विषय को संसार से पार करने में कारण कहकर प्रशंसा करना याथातथ्य है । परन्तु सूत्रोक्त अर्थ की ठीक-ठीक व्याख्या न करना. अथवा उसे संसार भ्रमण का कारण कहकर निन्दा करना अथवा अच्छी रीति से उसका अनुष्ठान न करना अयाथातथ्य है। आशय यह है कि- जिस रीति से सूत्र बनाये गये हैं, उसकी व्याख्या यदि उसी तरह की जाय और उसी तरह उसका आचरण किया जाय, तो वह संसार से जीव को पार करने में समर्थ होता है, इसलिए वह याथातथ्य होता है परन्तु यदि सूत्र का अर्थ ठीक न किया जाय अथवा उसे संसार का कारण कहकर निन्दा की जाय तो वह याथातथ्य नहीं होता है, यह इस गाथा का तात्पर्य्यार्थ है। इसी बात को दृष्टान्त देकर स्पष्ट करने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं - सुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी, प्रभवस्वामी और आर्य्यरक्षित आदि आचार्यों की परम्परा से जो सूत्र का व्याख्यान चला आता है, वही तु अभी की जा रही है, वह भी व्यवहार नय से की हुई कही जाती है, उसे जो कुतर्क के घमण्ड से बिगड़ा हुआ मनवाला पुरुष, नहीं मानता है किन्तु मिथ्यात्व से दृष्टि बिगड़ जाने के कारण अपने को सूक्ष्मबुद्धि समझता हुआ, उस अर्थ को असत्य कहता है तथा सर्वज्ञ के कहे हुए अर्थ की भी ओर तरह से व्याख्या करता है. जैसे कि वह कहता है कि - "जो वस्तु की जा रही है, उसे की गयी न कहना चाहिए, किन्तु जो की जा चुकी है उसी को की गयी कहना चाहिए, क्योंकि जिस समय घट बनाने के लिए मृत्पिण्ड में क्रिया की जाती है, उसी समय घट नहीं बन जाता है क्योंकि उस समय न तो उस मृत्पिण्ड में जलाहरण क्रिया होती है और न घट का वर्तुलत्वादि गुण होता है और न उसका घट यह नाम ही होता है।" इस प्रकार जो अपने को निपुण माननेवाला तथा अपने को पण्डित समझनेवाला पुरुष सर्वज्ञ के मत को दूषित करता है, वह जमालि निह्नव की तरह नाश को प्राप्त होता है । वह अरहट यन्त्र की तरह संसार सागर में भ्रमण करता रहेगा । वह यह नहीं जानता है कि- "यह लोक, घट बनाने के लिए जो मिट्टी खोदना आदि क्रियायें करता है, उन्हें घट में ही आरोप

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