Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 276
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा ९ श्रीयाथातथ्याध्ययनम् वा 'पश्यति' अवमन्यते । तदेवं यद्यन्मदस्थानं जात्यादिकं तत्तदात्मन्येवारोप्यापरमवधूतं पश्यतीति ॥८॥ किञ्चान्यत् टीकार्थ - जो हल्की प्रकृतिवाला पुरुष अपनी तुच्छता के कारण अपने को वसुमान् मानता है, वसुनाम द्रव्य का है, वह परमार्थतः संयम है इसलिए वह अपने को संयमी मानता है और समझता है कि मूल और उत्तम गुणों को अच्छी तरह पालन करनेवाला मैं ही हूँ, मेरे समान दूसरा कोई संयमी नहीं है तथा जिसके द्वारा जीवादि पदार्थों का निश्चय किया जाता है, उसे संख्या कहते हैं, वह ज्ञान है, उससे युक्त भी अपने को ही मानता हुआ तथा सच्ची बात की परीक्षा किये बिना ही अपनी बड़ाई करता है तथा यह भी समझता है कि - "बारह प्रकार की तपस्या से युक्त मैं ही हूँ, मेरे समान दूसरा कोई उत्कृष्ट तप से शरीर को तपाया हुआ नहीं हैं।" एवं ऐसा मानकर जो अपने उत्कर्ष का अभिमान रखता हुआ दूसरे साधु अथवा गृहस्थ लोगों को जल चन्द्र की तरह तथा नकली सिक्के की तरह अर्थ रहित केवल लिङ्ग मात्र को धारण करनेवाला अथवा पुरुष के आकार मात्र देखता है तथा जो-जो जाति आदि मद के स्थान हैं, उन सबों को अपने में ही आरोप करके दूसरे को तिरस्कार दृष्टि से देखता है ॥८॥ एगंतकूडेण उ से पलेइ, ण विज्जती मोणपयंसि गोत्ते । जे माणणद्वेण विउक्कसेज्जा, वसुमन्नतरेण अबुज्झमाणे ॥९॥ छाया - एकान्तकूटेन तु स पर्येति, न विद्यते मौनपदे गोत्रे । यो मननार्थेन व्युत्कर्षयेत् वसुमदव्यतरेणाबुध्यमानः ।। अन्वयार्थ - (से एगंतकुडेण पलेइ) पूर्वोक्त अहङ्कारी साधु एकान्तरूप से मोह में फंसकर संसार में भ्रमण करता है । (मोणपयंसि गोत्ते ण विज्जति) तथा वह समस्त आगों के आधाररूप सर्वज्ञ के मत में नहीं है। (जे माणणद्वेण विउक्वसेज्जा) तथा जो मानपूजा आदि को पाकर मद करता है, वह भी सर्वज्ञ के मार्ग का अनुगामी नहीं है । (वसुमत्रतरेण अबुज्झमाणे) तथा वह संयमी होकर भी ज्ञान आदि का मद करता हूआ परमार्थ को नहीं जानता है । भावार्थ - अहङ्कारी पुरुष एकान्त मोह में पड़कर संसार में भ्रमण करता है तथा वह सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग का अनुगामी भी नहीं है एवं जो मानपूजा की प्राप्ति से अभिमान करता है तथा संयम लेकर भी ज्ञान आदि का मद करता है, वह वस्तुतः मूर्ख है, पण्डित नहीं है । टीका - कूटवत्कूटं यथा कूटेन मृगादिर्बद्धः परवशः सन्नेकान्तदुःखभाग्भवति एवं भावकूटेन स्नेहमयेनैकान्ततोऽसौ संसारचक्रवालं पर्येति तत्र वा प्रकर्षेण लीयते प्रलीयते-अनेकप्रकारं संसार बम्भ्रमीति, तुशब्दात्कामादिना वा मोहेन मोहितो बहुवेदने संसारे प्रलीयते, यश्चैवंभूतोऽसौ 'न विद्यते' न कदाचन संभवति मुनीनामिदं मौनं तच्च तत्पदं च मौनपदं-संयमस्तत्र मौनीन्द्रे वा पदे-सर्वज्ञप्रणीतमार्गे नासौ विद्यते, सर्वज्ञमतमेव विशिनष्टि-गां-वाचं त्रायतेअर्थाविसंवादनतः पालयतीति गोत्रं तस्मिन् समस्तागमाधारभूत इत्यर्थः, उच्चैर्गोत्रे वा वर्तमानस्तदभिमानग्रहग्रस्तो मौनीन्द्रपदे न वर्तते, यश्च माननं-पूजनं सत्कारस्तेनार्थः-प्रयोजनं तेन माननार्थेन विविधमुत्कर्षयेदात्मानं, यो हि माननार्थेन-लाभपूजासत्कारादिना मदं कुर्यान्नासौ सर्वज्ञपदे विद्यत इति पूर्वेण संबन्धः, तथा वसु-द्रव्यं तच्चेह संयमस्तमादाय तथाऽन्यतरेण ज्ञानादिना मदस्थानेन परमार्थमबुध्यमानो माद्यति पठन्नपि सर्वशास्त्राणि तदर्थं चावगच्छनपि नासौ सर्वज्ञमतं परमार्थतो जानातीति ॥९॥ टीकार्थ - जो कूट यानी पाशबन्धन के तुल्य है, उसे कूट कहते हैं। जैसे मृग आदि पशु पाशबन्धन से बँधकर परवश हो जाता है और एकान्त दुःख का भाजन होता है. इसी तरह पर्वोक्त अभिमानी साध भी स्नेहरूप भावकूट में फंसकर संसार में भ्रमण करता है अथवा वह संसार में लीन हो जाता है, वह अनेक प्रकार से बारबार संसार में भ्रमण करता है । तु शब्द से यह बताया जाता है कि- वह काम आदि से अथवा मोह से मोहित होकर बहुत वेदनावाले संसार में लीन होता है । जो पुरुष पूर्वोक्तरूप से अभिमानी है, वह संयम में या सर्वज्ञ ५५८

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