Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 242
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा ११ श्रीसमवसरणाध्ययनम् "क्रियां च सज्ञानवियोगनिष्फलां, क्रियाविहीनां च विबोधसम्पदम् । निरस्यता क्लेशसमहशान्तये, त्वया शिवायालिखितेव पद्धतिः ||१||" ||११|| किञ्च - टीकार्थ - जो लोग ज्ञानरहित केवल दीक्षा आदि क्रिया से मोक्ष की प्राप्ति मानते हैं, वे यह कहते हैं - "माता - पिता हैं और शुभ कर्म का फल भी होता है।" वे क्या करके ऐसा कहते हैं ? वे क्रिया से ही सब कार्य सिद्ध होता है, इस प्रकार अपने अभिप्राय के अनुसार स्थावर, जंगम रूप लोक को जानकर "हम ही वस्तु का सच्चा स्वरूप जानते हैं। ऐसा मानते हुए सब पदार्थ हैं ही, इस प्रकार अवधारण के साथ वस्तु का स्वरूप बताते हैं, परन्तु वस्तु कथंचित् नहीं भी है, ऐसा वे नहीं कहते हैं। तथा वे कहते हैं कि जीव जैसी - जैसी क्रियायें करता है, उसके अनुसार ही वह स्वर्ग और नरक आदि फल को प्राप्त करता है । वे श्रमण और ब्राह्मण क्रिया मात्र से मोक्ष की प्राप्ति बताते हैं । वे कहते हैं कि - संसार में सुख - दुःख आदि जो कुछ होता है, वह सब अपना किया हुआ होता है, काल तथा ईश्वर आदि का किया हुआ नहीं होता है । जो क्रिया नहीं मानते हैं, उनके मत में ये बातें घटित नहीं होती हैं क्योंकि आत्मा के अक्रिय होने पर बिना किये ही सुख - दुःख की प्राप्ति सम्भव नहीं है। यदि बिना किये ही सुख - दुःख की प्राप्ति हो तो कृतनाश और अकृताभ्यागम होंगे। अब यहां जैनाचार्य कहते हैं कि - तुम्हारा कहना ठीक है, क्योंकि आत्मा और सुख-दुःख आदि जरूर हैं, परन्तु वे सर्वथा हैं ही, यह बात नहीं है क्योंकि यदि वे (सब प्रकार से ) हैं ही इस प्रकार अवधारण के सहित उनका अस्तित्व है तो वे कथञ्चित् नहीं हैं, यह बात नहीं हो सकती है और ऐसा न होने पर सभी वस्तु सर्व वस्तु स्वरूप हो जायगी । इस प्रकार जगत् के समस्त व्यवहारों का उच्छेद हो जायगा (इसलिए वस्तु कथञ्चित् है, यही बात माननी चाहिए) तथा ज्ञान रहित क्रिया से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि उस कार्य के उपाय का ज्ञान नहीं रहता है और उपाय का ज्ञान के बिना उपाय के द्वारा प्राप्त होनेवाला पदार्थ की प्राप्ति नहीं होती है, यह सर्वत्र प्रसिद्ध है। सभी क्रियायें ज्ञान के साथ ही फल देती हैं, यह देखा जाता है, अतः एव कहा है कि - पहले ज्ञान होता है तब दया पाली जाती है, समस्त संयमी जीव पहले जीवों का ज्ञान प्राप्त करते हैं पश्चात् दया का पालन करते हैं, जिसको जीवादि पदार्थो का ज्ञान नहीं है, वह पुरुष कैसे दया कर सकता है ? और वह पाप को किस प्रकार जान सकता है ?। अतः क्रिया के समान ज्ञान की भी प्रधानता है। एक मात्र ज्ञान से ही कार्य की सिद्धि नहीं होती है, क्योंकि क्रिया रहित ज्ञान पङ्गु के समान है, इसलिए वह कार्य की सिद्धि में समर्थ नहीं है। यह विचारकर शास्त्रकार कहते हैं कि - ज्ञान रहित क्रिया से कार्य की सिद्धि नहीं होती है तथा क्रिया रहित ज्ञान भी पंगु के समान है इसलिए तीर्थंकर और गणधर आदि ने ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष बताया है । यहां "ज्ञानं च क्रिया च" यह विग्रह करके अर्श आदित्वात् अच् प्रत्यय हुआ है, इसलिए मोक्ष ज्ञान और क्रिया के द्वारा साध्य है, यह अर्थ है । आशय यह है, कि- तीर्थङ्कर और गणधर आदि ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष की प्राप्ति कहते हैं । अथवा इस गाथा की दूसरी तरह भी व्याख्या है - इन समवसरणों को किसने कहा है, जो तुमने पहले कहा है और आगे चलकर कहोगे ? यह शङ्का करके शास्त्रकार यह गाथा लिखते हैं - जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप जानते हैं, उसे "प्रज्ञा" कहते हैं, प्रज्ञा नाम ज्ञान का है, वह ज्ञान जिसका कहीं नहीं रुकता है, उसे अनिरुद्धप्रज्ञ कहते हैं । वे अनिरुद्धप्रज्ञ पुरुष पूर्वोक्त रीति से वस्तु स्वरूप का कथन करते हैं । वे केवलज्ञान के द्वारा चौदह रज्जु स्वरूप अथवा स्थावर जंगमरूप इस लोक को हस्तामलकवत् जानकर तीर्थकर पद को अथवा केवलज्ञान को प्राप्त हैं। तथा श्रमण यानी साधु और ब्राह्मण यानी संयतासंयत ऐसा कहते हैं । वे कैसे हैं, जो ऐसा कहते हैं ? कहीं - कहीं "तथा तथेति वा" यह पाठ मिलता है। इसका अर्थ है कि जिस प्रकार समाधि मार्ग व्यवस्थित है यानी सत्य है उस - उस प्रकार उपदेश करते हैं । वे कहते हैं किसंसार के प्राणियों को जो कुछ दुःख प्राप्त होता है तथा उससे विपरीत जो सुख प्राप्त होता है, वह अपने किये कर्म का फल है, वह काल, और ईश्वर आदि से किया हुआ नहीं है । अतः एव कहा है कि सभी प्राणी अपने पूर्वकृत कर्मों का फल प्राप्त करते हैं, दूसरा पदार्थ बुराई और भलाई का केवल निमित्त ५२४

Loading...

Page Navigation
1 ... 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364