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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा ३६
श्रीमार्गाध्ययनम् तथा पापं - पापोपादानकारणं धर्म प्राण्युपमर्दैन प्रवृत्तं निराकुर्यात्, तथोपधानं - तपस्तत्र यथाशक्त्या वीर्य यस्य स भवत्युपधानवीर्यः, तदेवंभूतो भिक्षुः क्रोधं मानं च न प्रार्थयेत् न वर्धयेद्वेति ॥३५॥
टीकार्थ - क्षान्ति आदि दश प्रकार का साधुओं का धर्म होता है। अथवा सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र, साधओं का धर्म है। इस धर्म की बद्धिमान पुरुष वद्धि करे। वह प्रतिक्षण नये - नये की वृद्धि करे तथा शङ्का आदि दोषों को छोड़कर जीवादि पदार्थों को अच्छी तरह स्वीकार करके सम्यग्दर्शन की वृद्धि करे एवं अतिचार रहित मूलगुण और उत्तर गुणों को पूर्ण रूप से पालन करके तथा प्रतिदिन नये - नये अभिग्रहों को ग्रहण करके चारित्र की वृद्धि करे । कहीं - कहीं "सद्दहे साधुधम्म च" यह पाठ मिलता है । इसका अर्थ यह है कि - पूर्वोक्त विशेषणवाले धर्म को साधु मोक्षमार्ग माने और शङ्का छोड़कर उसे ग्रहण करे । तथा च शब्द से उस धर्म को अच्छी तरह पाले । जो धर्म प्राणियों की हिंसा से युक्त होने के कारण पाप का कारणरूप है उसका त्याग करे । तथा तपरूपी धर्म करने में पूरा जोर लगावे और क्रोध, मान को न बढ़ावे ॥३५॥
- अथैवंभूतं भावमार्ग किं वर्धमानस्वाम्येवोपदिष्टवान् उतान्येऽपीत्येतदाशङ्कयाह -
- इस प्रकार का जो भावमार्ग है, उसका उपदेश क्या अकेले भगवान् महावीर स्वामी ने ही किया है अथवा दूसरे तीर्थङ्करों ने भी ? यह शङ्का करके शास्त्रकार समाधान करते हैं - जे य बद्धा अतिक्कंता,जे य बुद्धा अणागया। संति तेसिं पइट्ठाणं, भूयाणं जगती जहा
॥३६॥ छाया - ये च बुद्धा अतिक्रान्ता ये च बुद्धा अनागताः । शान्तिस्तेषां प्रतिष्ठानं भूतानां जगती यथा ॥
अन्वयार्थ - (जे य बुद्धा अतिक्कंता) जो तीर्थङ्कर भूतकाल में हो चुके हैं (जे य बुद्धा अणागया) तथा जो भविष्यकाल में। संति पइट्ठाणं) उनका आधार शान्ति ही है (जहा भूयाणं जगती) जैसे भूतों का आधार पृथिवी है ।
भावार्थ - जो तीर्थकर भूतकाल में हो चूके हैं और जो भविष्यकाल में होंगे, उन सभी का शान्ति ही आधार है, जैसे समस्त प्राणियों का त्रिलोकी आधार है ।
टीका - ये बुद्धाः - तीर्थकृतोऽतीतेऽनादिके कालेऽनन्ताः समतिक्रान्ताः ते सर्वेऽप्येवंभूतं भावमार्गमुपन्यस्तवन्तः, तथा ये चानागता भविष्यदनन्तकालभाविनोऽनन्ता एव तेऽप्येवमेवोपन्यसिष्यन्ति, चशब्दाद्वर्तमानकालभाविनश्च संख्येया इति । न केवलमुपन्यस्तवन्तोऽनुष्ठितवन्तश्चेत्येतद्दर्शयति - शमनं शान्तिः- भावमार्गस्तेषामतीतानागतवर्तमानकालभाविनां बुद्धानां प्रतिष्ठानम् - आधारो बुद्धत्वस्यान्यथानुपपत्तेः, यदिवा शान्तिः- मोक्षः स तेषां प्रतिष्ठानम्आधारः, ततस्तदवाप्तिश्च भावमार्गमन्तरेण न भवतीत्यतस्ते सर्वेऽप्येनं भावमार्गमुक्तवन्तोऽनुष्ठितवन्तश्च (इति) गम्यते। शान्तिप्रतिष्ठानत्वे - दृष्टान्तमाह - "भूतानां" स्थावरजङ्गमानां यथा "जगती" त्रिलोकी प्रतिष्ठानं एवं ते सर्वेऽपि बुद्धाः शान्तिप्रतिष्ठाना इति ॥३६॥
टीकार्थ - पूर्व के अनादिकाल में जो अनन्त तीर्थङ्कर हो चुके हैं, उन सभी ने भी इसी भावमार्ग का उपदेश किया है तथा आनेवाले अनन्त काल में जो अनन्त तीर्थङ्कर होंगे वे भी इसी भावमार्ग का उपदेश करेंगे । तथा च शब्द से वर्तमान काल में जो संख्यात तीर्थङ्कर हैं, वे भी इसी मार्ग का उपदेश करते हैं । उन लोगों ने इस भावमार्ग का उपदेश ही नहीं किया है किन्तु आचरण भी किया है, यह शास्त्रकार दिखलाते हैं - कषायों के नाश को शान्ति कहते है, वह भावमार्ग है । वह भावमार्ग ही अतीत, अनागत तथा वर्तमान तीर्थङ्करों का आधार है क्योंकि इसके बिना बुद्धता होती ही नहीं ! अथवा मोक्ष को शान्ति कहते हैं, वह मोक्ष सभी तीर्थङ्करों का आधार है परन्तु भावमार्ग के बिना उसकी प्राप्ति नहीं होती है, इसलिए सभी तीर्थङ्करों ने भावमार्ग का उपदेश किया है और स्वयं ने आचरण भी किया है। तीर्थङ्करों का शान्ति ही आधार है, इस विषय में दृष्टान्त बताते हैं - जैसे जीवों का आधार तीन लोक है, इसी तरह तीर्थङ्करों का आधार शान्ति है ॥३६॥
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