Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 167
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा ५ श्रीसमाध्यध्ययनम् मनुतिष्ठेत् "मुनिः" साधुः "सर्वतः" सबाह्याभ्यन्तरात् सङ्गाद्विशेषेण प्रमुक्तो विप्रमुक्तो निःसङ्गो मुनिः निष्किञ्चनश्चेत्यर्थः, स एवम्भूतः सर्वबन्धनविप्रमुक्तः सन् “पश्य" अवलोकय पृथक् पृथक् पृथिव्यादिषु कायेषु सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकभेदभिन्नान् “सत्त्वान्" प्राणिनः अपिशब्दावनस्पतिकाये साधारणशरीरिणोऽनन्तानप्येकत्वमागतान् पश्य, किंभूतान् ?दुःखेन-असातवेदनीयोदयरूपेण दुःखयतीति वा दुःखम् - अष्टप्रकारं कर्म तेनार्त्तान् - पीडितान् परि - समन्तात्संसारकटाहोदरे स्वकृतेनेन्धनेन "परिपच्यमानान्" क्वाथ्यमानाम् यदिवा - दुष्प्रणिहितेन्द्रियानार्तध्यानोपगतान्मनोवाक्कायैः परितप्यमानान् पश्येति सम्बन्धो लगनीय इति ॥४॥ अपि च टीकार्थ - साधु स्पर्शन आदि सभी इन्द्रियों को वश करके जितेन्द्रिय बने (प्रश्न) किसके विषय में ? (उत्तर) स्त्रियों के विषय में, अर्थात् स्त्रियों के विषय में शब्द आदि पाँच ही विषय विद्यमान हैं । अत एव कहा है कि (कलानि) स्त्रियों का वाक्य सुनने में कानों को मधुर लगता है, तथा उनका चलना और देखना, नेत्र को प्रसन्न करता है एवं उनके साथ रमण करने से आश्चर्यजनक आनन्द होता है तथा उनके मुख को चुम्बन करने से रस और गन्ध भी प्राप्त होते हैं । इस प्रकार सुन्दर स्त्री में पाँच ही विषय होने से साधु को स्त्री के विषय में जितेन्द्रिय होना चाहिए। (स्त्रियों के सहवास से साधु को दूर रहना चाहिए) यही शास्त्रकार दिखाते हैं - साधु बाहर और भीतर दोनों ही प्रकार के सङ्गो को छोड़कर तथा निष्किञ्चन होकर संयम का अनुष्ठान करे । तुम सब प्रकार के बन्धनों से रहित होकर पृथिवी आदि कायों में अलग-अलग रहनेवाले सूक्ष्म बादर पर्याप्त और अपर्याप्त भेद वाले प्राणी तथा अपि शब्द से वनस्पतिकाय में साधारण शरीरवाले अनन्त प्राणी जो एकता को प्राप्त हुए हैं उन्हें देखो) (प्रश्न) वे प्राणी कैसे हैं? (उत्तर) वे असातावेदनीय के उदयरूप अथवा आठ प्रकार के कर्मरूप दुःख से पीड़ित हैं, वे संसाररूप कटाह में अपने किये हुए कर्मरूपी इन्धनों से पकाये जा रहे हैं अथवा उनकी इन्द्रियाँ बुरे व्यापारों में लगी हुई हैं और वे आर्तध्यान करते हुए मन, वचन और काय से ताप का अनुभव कर रहे हैं, यह देखो ॥४॥ एतेसु बाले य पकुव्वमाणे, आवडती कम्मसु पावएसु । अतिवायतो कीरति पावकम्म, निउंजमाणे उ करेइ कम्म छाया - एतेषु बालश्च प्रकुर्वाणः, आवर्तते कर्मसु पापकेषु । अतिपाततः क्रियते पापकर्म, नियोजयंस्तु करोति कर्म । अन्वयार्थ - (बाले) अज्ञानी जीव, (एतेसु) पूर्वोक्त पृथिवीकाय आदि प्राणियों को (पकुव्वमाणे) कष्ट देता हुआ (पावएसु कम्मसु आवट्टति) पापकर्म में अथवा इन पृथिवीकाय आदि योनियों में भ्रमण करता है । (अतिवायतो पावकम्मं कीरति) जीवहिंसा करके प्राणी पापकर्म करता है (निउंजमाणे उ कम्मं करेइ) तथा दूसरे के द्वारा हिंसा कराकर भी जीव पाप करता है । भावार्थ - अज्ञानी जीव पृथिवीकाय आदि प्राणियों को कष्ट देता हुआ पापकर्म करता है और अपने पाप का फल भोगने के लिए वह पृथिवीकाय आदि प्राणियों में ही बार-बार जन्म लेता है । जीवहिंसा स्वयं करने और दूसरे के द्वारा . कराने से पाप उत्पन्न होता है । टीका - "एतेषु" प्राङ् निर्दिष्टेषु प्रत्येकसाधारणप्रकारेषूपतापक्रियया बालवत् "बालः" अज्ञश्चशब्दादितरोऽपि सङ्घट्टनपरितापनापद्रावणादिकेनानुष्ठानेन "पापानि" कर्माणि प्रकर्षेण कुर्वाणस्तेषु च पापेषु कर्मसु सत्सु एतेषु वा पृथिव्यादिजन्तुषु गतः संस्तेनैव संघट्टनादिना प्रकारेणानन्तशः "आवर्त्यते" पीडयते दुःखभाग्भवतीति, पाठान्तरं वा "एवं तु बाले" एवमित्युपप्रदर्शने यथा चौरः पारदारिको वा असदनुष्ठानेन हस्तपादच्छेदान् बन्धवधादींश्चेहावाप्नोत्येवं सामान्यदृष्टेनानुमानेनान्योऽपि पापकर्मकारी इहामुत्र च दुःखभाग्भवति, "आउट्टति" त्ति क्वचित्पाठः, तत्राशुभान् कर्मविपाकान् दृष्ट्वा श्रुत्वा ज्ञात्वा वा तेभ्योऽसदनुष्ठानेभ्य “आउट्टति" त्ति निवर्तते, कानि पुनः पापस्थानानि येभ्यः पुनः प्रवर्तते निवर्तते वा इत्याशङ्कय तानि दर्शयति - "अतिपाततः" प्राणातिपाततः प्राणव्यपरोपणाद्धेतोस्तच्चाशुभं ४४९

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