Book Title: Sursundari Chariyam
Author(s): Dhaneshwarmuni, Mahayashashreeji
Publisher: Omkar Gyanmandir Surat

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Page 597
________________ लीलाचलंतलोयणकुमरपलोयणविमुक्कनीसासा । मयणसरसल्लियंगिव्व नजए चउरसहियाहिं ॥ १३८ ॥ कावि हु चुंबइ बालं अन्ना सहियाइ लग्गए गलए । अन्ना करेइ गीयं कावि हु उच्चं समुल्लवइ ॥ १३९ ॥ लीलाचलंतगीवो जत्तो जत्तो नियच्छइ कुमारो । सोहग्गमहो वड्डइ तहिं तहिं नयरनारीणं ॥ १४० ॥ एवं च समयणाहिं पुलईजंतो स नयरनारीहिं । पत्तो कमेण सागरदत्तगिहासन्नभूभागे ॥ १४१ ॥ दिट्ठो सुलोयणाए अवलोयणसंठियाइ तेणावि । दिट्ठा इमा सकज्जलसिणिद्धपिहुनयणसोहिल्ला ॥ १४२ ॥ पुव्वभवब्भासाओ अवरोप्परदसणाओ संजाओ । अइगुरुओ अणुराओ तक्खणमेत्तेण दोण्हंपि ॥ १४३ ॥ लीलाचलल्लोचनकुमारप्रलोकनविमुक्तनिःश्वासाः । .. मदनशरशल्यागी इव ज्ञायते चतुरसखीभिः ॥ १३८ ॥ काऽपि खलु चुम्बते बालमन्या सख्यु-लंगति गलके । अन्या करोति गीतं काऽपि हु उच्चं समुल्लपति ॥ १३९ ॥ लीलाचलत्ग्रीवो यतो यतः पश्यति कुमारः । सौभाग्यमहो वर्धते तत्र तस्मिन् नगरनारीणाम् ॥ १४० ॥ एवञ्च समदनाभि-दृश्यमानः स नगरनारीभिः । प्राप्तः क्रमेण सागरदत्त गृहासन्नभूभागे ॥ १४१ ॥ दृष्टः सुलोचनयाऽवलोकनसंस्थितया तेनाऽपि । दृष्टेयम् सकजलस्निग्धपृथुनयनशोभावती ॥ १४२ ॥ पूर्वभवाभ्यासात् परस्परदर्शनतः सञ्जातः । अतिगुरुकोऽनुरागस्तत्क्षणमात्रेण द्वयोरपि ॥ १४३ ॥ १. चतुरसखीभिः । २. पश्यति । ३. महः उत्सवः । ४. दृश्यमानः । ५७२ चतुर्दशः परिच्छेदः सुरसुन्दरीचरित्रम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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