Book Title: Sursundari Chariyam
Author(s): Dhaneshwarmuni, Mahayashashreeji
Publisher: Omkar Gyanmandir Surat

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Page 642
________________ अह मयरकेउ - राया भणियो ताएण पुत्त ! अज्जेव । किज्जउ विगाल - समए सोहण - वेला - मुहुत्तम्मि ॥ १५६ ॥ जणणि-जणायाण दंसणमिय भणिए सयलखयरनियरेण । अह काउं पारद्धा तक्खणमागमण - सामग्गी ॥ १५७ ॥ युग्मम् ॥ एत्थंतरम्मि अहमवि तायं आपुच्छिऊण वेगेण । सुरसुंदरि ! तुह पासे पउत्ति - कहणत्थमायाया ॥ १५८ ॥ एवं पियंवया वयणं सोऊण दास - चेडीहिं । गंतुं रन्नो सिद्धं अह राया हरिस- पडिहत्थो ॥ १५९ ॥ वरगीयविहियवाइयरवेण वर्रविलयनदृजुत्तेणं । कयविविहकोउएहिं य जणयंतो पउर- संखोहं ॥ १६० ॥ नीहरिओ नयराओ चउरंगबलेण गयवरारूढो । सव्वाए विभूईए अंतोगेइयाए तणयस्स ॥ १६१ अथ मकरकेतुराजा भणितस्तातेन पुत्र! अद्यैव । क्रियतां विकालसमये शोभनवेलामुहूर्त्ते ॥ १५६ ॥ जननीजनकयो - दर्शनमिति भणिते सकलखेचरनिकरेण । अथ कर्तुं प्रारब्धा तत्क्षणमागमनसामग्रीः ॥ १५७ ॥ युग्मम् ॥ अत्रान्तरेऽहमपि तातमापृच्छ्य वेगेन । सुरसुन्दरि ! तव पार्श्वे प्रवृत्तिकथनार्थमायाता ॥ १५८ ॥ एवं प्रियंवदाया वचनं श्रुत्वा दासचेटीभिः । गत्वा राज्ञे शिष्टमथ राजा हर्षपूर्णः ॥ १५९ ॥ वरगीतविहितवाद्यरवेण वरवनितानाट्ययुक्तेन । कृतविविधकौतुकैश्च जनयन् प्रचुरसंक्षोभम् ॥ १६० ॥ निःसृतो नगराच्चतुरङ्गबलेन गजवरारूढः । सर्वया विभूत्या अन्तोगतिकाया तनयस्य ॥ १६९ ॥ तिसृभि र्विशेषकम् ॥ १. वरवनिता नाट्ययुक्तेन । २. संमुखगमनार्थमित्यर्थः । ३. तिसृभिः कुलकम् । सुरसुन्दरीचरित्रम् Jain Education International पञ्चदशः परिच्छेदः For Private & Personal Use Only ६१७ www.jainelibrary.org

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