Book Title: Sursundari Chariyam
Author(s): Dhaneshwarmuni, Mahayashashreeji
Publisher: Omkar Gyanmandir Surat

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Page 603
________________ केवि हु विरीलतन्नयपुरीसमीसेहिं गुग्गुलाईहिं । उव्वरियम्मी खिवित्ता उद्ध्रुवणियं पयच्छंति ॥ १७४ ॥ वायस्स विगरसंकिरेहिं वेज्जेहिं ' विविहकिरियाओ । पारद्धाओ न उणो कोवि गुणो ताण संजाओ ॥ १७५ ॥ उम्मत्तयरूवेणं पणट्ठचित्ताण वच्चए कालो । अह अन्नया पसुत्ते पाहरियजणम्मि रयणी ॥ १७६ ॥ भंजित्ता नियँलाई निहुयं चिय निग्गयाइं नयरीओ । दोन्निवि भमंति सीउण्हवायबहुदुक्खतवियाई ॥ १७७ ॥ युग्मम् ॥ इय नरवर ! संसारे सुहिओ होऊण जायए दुहिओ । रायावि भमइ भिक्खं सुवइ महीए निरावरणो ॥ १७८ ॥ पवराहारविलेवणआहरणविभूसियाई होऊण । हिंडंति ताइं भिक्खं गिहे गिहे दुक्खतवियाई ॥ १७९ ॥ केsपि खलु बिडालतर्णकपुरीषमिश्र - गुंगलादिभिः । अपवरिकायां क्षिप्त्वोद्धूपनिकां प्रयच्छन्ति ॥ ९७४ ॥ वातस्य विकाराऽऽशङ्कितृभि वैद्यैः विविधक्रियाः । प्रारब्धा न पुनः कोऽपि गुणस्तयोः सञ्जातः ॥ १७५ ॥ उन्मत्तरूपेण प्रणष्टचित्तयो व्रजति कालः । अथान्यदा प्रसुप्ते प्राहरिकजने रजन्याम् ॥ १७६ ॥ भङ्क्त्वा निगडानि निभृतं (प्रच्छन्नं ) चैव निर्गतौ नगरीतः । द्वावपि भ्राम्यतः शीतोष्णवातबहुदुःखतप्तौ ॥ १७७ ॥ युग्मम् ॥ - इति नरवर ! संसारे सुखिनो भूत्वा जायते दुःखिनः । राजाऽपि भ्राम्यति भिक्षां स्वपिति मह्यां निरावरणः ॥ १७८ ॥ प्रवराहारविलेपनाभरणविभूषितौ भूत्वा । भ्राम्यतस्ते भिक्षां गृहे गृहे दुःखतप्तौः ॥ १७९ ॥ १. बिडालतर्णकपुरीषमिश्रैः मूषकारिबालकविष्ठासहितैः । २. अपवरिकायाम् । ३. उद्धूपनिकाम् । ४. विकाराऽऽशङ्कितृभिः । ५. वैद्यैः । ६. निगडानि । ७. निहुयं तूष्णीकम्= प्रच्छन्नमित्यर्थः । ८. निरावरण: नग्नः । ५७८ Jain Education International चतुर्दशः परिच्छेदः For Private & Personal Use Only सुरसुन्दरीचरित्रम् www.jainelibrary.org

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