Book Title: Sursundari Chariyam
Author(s): Dhaneshwarmuni, Mahayashashreeji
Publisher: Omkar Gyanmandir Surat
________________
भणियं पियंवयाए अत्थि तुमं ताव तेण उक्खित्ता । .. वेयालेण अहं पुय पडिया मुच्छाइ भूमीए ॥ ९० ॥ तत्तो खणंतराओ मुच्छाविरमम्मि सोगसंतत्ता । हा ! कत्थ गया भगिणी कीस न सो आगओ भाया ? ॥ ९१ ॥ नूणं तेण पिसाएण होज विहियं असोहणं किंपि । एमाइ चिंतयंती गवेसिउं ताहि लग्गा हं ॥ ९२ ॥ अह तत्थ रयणदीवे समंतओ हिंडिऊण गयणत्था । भमिया लवणसुद्दे पलोययंती तुमं बहुहा ॥ ९३ ॥ फलयविलग्गो दिट्ठो समुद्दमज्झम्मि वीइनिवहेण । तोलिज्जमाणदेहो अह भाया मयरकेउत्ति ॥ ९४ ॥ उक्खिविऊण तत्तो नीओ जिणमंदिरम्मि अह तम्मि । पुट्ठो य कह णु पडिओ समुद्दमज्झम्मि, अह तेण ॥ ९५ ॥
भणितं प्रियंवदयाऽस्ति त्वं तावत्तेनोरिक्षप्ताः । वेतालेनाऽहं पुन: पतिता मूर्च्छया भूमौ ॥ ९० ॥ ततःक्षणान्तरतो मूर्छाविरमे शोकसंतप्ता । हा ! कुत्र गता भगिनी कस्मान्न स आगतो भ्राता ? ॥ ९१ ॥ नूनं तेन पिशाचेन भवेद्विहितमशोभनं किमपि । एवमादि चिन्तयन्ती गवेषयितुं तदा लग्नाऽहम् ॥ ९२ ॥ अथ तत्र रत्नद्वीपे समन्ततो भ्रान्त्वा गगनस्था । भ्रान्ता लवणसमुद्रे प्रलोकयन्ती त्वं बहुधा ॥ ९३ ॥ फलकविलग्नो दृष्टः समुद्रमध्ये वीचिनिवहेन । तोल्यमानदेहोऽथ भ्राता मकरकेतुरिति ॥ ९४ ॥ उत्क्षिप्य ततो नीतो जिनमंदिरेऽथ तस्मिन् । पृष्टश्च कथनु पतितः समुद्रमध्ये, अथ तेन ॥ ९५ ॥ १. वेतालेन । २. वीचि:-तरङ्गः ।
६०६
पञ्चदशः परिच्छेदः
सुरसुन्दरीचरित्रम्
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702