Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 7
________________ ६ ) ( सुखी होने का उपाय भाग- ३ सभी द्रव्यों के परिणमनों से मेरा कोई संबंध नहीं रहने के कारण, वे मेरे लिये मात्र पर, उपेक्षणीय एवं ज्ञेय मात्र हैं । अतः उनके परिणमिनों के कारण मेरे को कोई प्रकार की आकुलता उत्पन्न होने का कारण ही नहीं रहता । मेरी आत्मा का भला अथवा बुरा अर्थात् हानि अथवा लाभ पहुंचाने वाला एकमात्र मैं स्वयं ही हूँ उसीप्रकार मेरा सुधार भी मैं स्वयं ही कर सकता हूँ । अतः मुझे मेरे में ही मेरे कल्याण के लिये अनुसंधान करके यथार्थ मार्ग खोजना पड़ेगा एवं अपने में ही प्रगति करनी पड़ेगी ।” उपर्युक्त श्रद्धा जाग्रत कर लेने पर आत्मार्थी अपने आत्म द्रव्य में ही यथार्थ मार्ग खोजना प्रारम्भ करता है । अत: अन्तर्दशा के अनुसंधान की विधि उपर्युक्त पुस्तक के भाग - २ में “ आत्मा की अन्तर्दशा, तत्त्व निर्णय एवं भेद विज्ञान ।" के शीर्षक पूर्वक आत्मा में अनुसंधान करने का उपाय बताया गया था । “उसके माध्यम से आत्मा, जब अपनी अन्तर्दशा का अनुसंधान करता है तो वहाँ उसको एक ओर तो त्रिकाली, स्थायी भाव, ऐसा 'ध्रुवांश' दिखाई देता है और दूसरी ओर क्षण-क्षण में बदलता हुआ परिवर्तनशील - अस्थाई भाव, 'पर्यायांश' दिखाई देता है । आचार्यों ने भी द्रव्य की अर्थात् सत् की परिभाषा भी " उत्पाद व्यय धौव्ययुक्तं सत्" ही बताई है। उक्त सत्रूप द्रव्य में हेय, उपादेय एवं श्रद्धेय की खोज करने के लिए सात तत्त्वों के माध्यम से सत् की यथार्थ स्थिति इस पुस्तक में समझाई है।” "उन सात तत्त्वों में, जीव तत्त्व तो आत्मा है, अजीव तत्त्व तो परज्ञेय तत्त्व हैं, आस्रव बंध पर्यायांश है, एवं हेय तत्त्व हैं, संवर निर्जरा पर्यायांश है, एवं उपादेय तत्त्व हैं, मोक्ष तत्त्व तो परम उपादेय तत्त्व है ही । इन्हीं में आस्रव बंध तत्त्व के विशेष भेद पुण्य व पाप मिलाकर नवतत्त्व भी कह दिये जाते हैं, वे भी आस्रव बंध के भेद होने से हेय तत्त्व ही हैं ।” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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