Book Title: Sramana 2013 01
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 28
________________ विन्ध्य क्षेत्र के दिगम्बर जैन तीर्थ .... : 21 १४. भामौन- भामौन बीठला से ६ किमी० तथा महोली सी ८ किमी. दूर है। यहां भी मन्दिरों के भग्नावशेष पड़े हैं जिनमें जैन मूर्तियां बड़ी संख्या में पाई जाती हैं। १५. भियादांत- यह उर्वशी नदी के किनारे चन्देरी-ईसागढ़ रोड से १३ किमी. दूर स्थित है। यहां के मन्दिरों में पद्मासन तीर्थंकर मूर्ति मूलनायक के रूप में प्रतिष्ठित है। ग्रामीण इसे बैठादेव कहते हैं। इस प्रतिमा के कारण इसे अतिशय क्षेत्र कहा जाता है। अहीर, गूजर इसे भीमसेन बाबा कहते हैं। १६. बीठला- यह क्षेत्र चन्देरी से १७ किमी. दूरी पर महोली के निकट गुना जिले में है। यहां से २ फर्लाग पर एक प्राचीन जैन मन्दिर है तथा उसके आस-पास कई मन्दिरों के भग्नावशेष पड़े हैं। इन अवशेषों में भगवान सम्भवनाथ और मुनिसुव्रत की मूर्तियां पहचानी जाती हैं। ये मन्दिर और मूर्तियां लगभग १२ वीं शताब्दी के प्रतीत होते हैं। १७. पपौरा- पपौरा अतिशय क्षेत्र है। यह टीकमगढ़ जिले में कानपुर-सागर मार्ग पर टीकमगढ़ से ५ किमी. की दूरी पर स्थित है। सुरम्य वृक्षावली से घिरे विशाल मैदान में एक परकोट के अन्दर १०७ गगनचुम्बी मन्दिर हैं जो १२वीं शताब्दी से २०वीं शताब्दी तक के निर्मित हैं। यहां के सबसे प्राचीन चार मन्दिर हैं-, महावीर, चन्द्रप्रभ, पार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ मन्दिर। लगभग इसी काल में मेरुमन्दिरों की इसी प्रकार की रचना अहार और सोनागिरि में हुई प्राप्त होती है। यहां स्थित दो भोयरों में से एक में भगवान आदिनाथ की कृष्ण पाषाण की पालिशदार मनोज्ञ प्रतिमा है। इस मूर्ति के दोनों और दो मूर्तियां ८०० वर्ष से कुछ अधिक प्राचीन हैं। इन भोयरों से ऐसा लगता है कि ये भोंयरे भी अहार, बन्धा और पपौरा आदि स्थानों के भोयरों के आस-पास के काल में ही बने होंगे। इन भोयरों का उद्देश्य मूर्तियों की सुरक्षा था। यहां मानस्तम्भ और धर्मशालायें भी प्राप्त होती हैं। १८. अहार-श्री दिगम्बर अतिशय क्षेत्र अहारजी टीकमगढ़-बलदेवगढ़ रोड पर टीकमगढ़ से १९ किमी. पर स्थित है। कहा जाता है कि यहां के शान्तिनाथ मन्दिर का निर्माण पाडाशाह ने रांगा के चांदी हो जाने पर उस चांदी के मूल्य से करवाया था। इतिहास ग्रंथों में इसका एक नाम मदनेशसागपुर भी मिलता है। यहां भूगर्भ और *बाहर से अनेक खंडित-अखंडित जैन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। कुछ मूर्तियों के लेखों से भट्टारकों के नामों पर प्रकाश पड़ता है। ये नामोल्लेख १२वीं शताब्दी से १८-१९वीं वीं शताब्दी तक के मूर्ति लेखों में मिलते हैं। इन भट्टारकों में माहबसेन, उद्धरसेन, देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीर्ति, गुणकीर्ति, मलयकीर्ति आदि का

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