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जैन पुराणों में सामन्त व्यवस्था का दिग्दर्शन
डॉ. प्रत्युष कुमार मिश्रा
लेखक ने बाण के हर्ष चरित का उल्लेख करते हुए सामन्तों के कई प्रकार गिनाए हैं। सामन्त व्यवस्था का उद्भव मौर्यकाल से होकर गुप्तकाल में चरम पर पहुँच गया। अधीनस्थ राजा इनकी आज्ञा का पालन करते थे तथा धन-धान्य के साथ कन्याओं को भी समर्पित करते थे। अधीनस्थ राजाओं को भी सामन्त कहा जाता था। परन्तु वे स्वतन्त्र नहीं होते थे। कभी-कभी परतन्त्र सामन्त अपने प्रधान सामन्त से बगावत भी कर जाते थे परन्तु पराजित होने पर बहुत अधिक अपमानित होते थे। जीतने पर स्वतन्त्र हो जाते थे । जागीरदार (भू-स्वामी) भी एक प्रकार के सामन्त थे । आज भारत में सामन्त व्यवस्था समाप्त हो गई है और प्रजातन्त्र व्यवस्था चल रही है।
- सम्पादक
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जैन पुराणों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि जैन पुराणों के प्रणयन काल में सामन्त व्यवस्था भी प्रचलित थी। राजा द्वारा युद्ध-काल में अधीनस्थ सामन्तों को युद्ध में सहयोगार्थ आमन्त्रित करने और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें दूत के रूप में अन्य राजा के यहाँ भेजने का उल्लेख पद्म पुराण में उपलब्ध होता है। जैन पुराणों में यह उल्लेख भी समुपलब्ध है कि अधीनस्थ राजा या सामन्तगण अपने स्वामी को कुलपरम्परानुसार धन-धान्य, कन्या तथा अन्य अनेक वस्तुएँ देकर उनकी आराधना करते थे।' म्लेच्छ राजा चामरी गाय के बाल और कस्तूरी मृग की नाभि अपने स्वामी को भेंट में प्रदान करते थे। अधीनस्थ राजा सामन्त वृष, नाग, बानर आदि चिह्नित पताकाएँ धारण करते थे।' मण्डलेश्वरों (सामन्तों) के राजाधिराज (राजेन्द्र) के दर्शनार्थ आने का उल्लेख पद्म पुराण में भी प्राप्य है।
जैन पुराणों के उक्त तथ्यों की पुष्टि अभिलेखीय साक्ष्यों से भी होती है। अभिलेखीय साक्ष्यों से यह भी विदित होता है कि गुप्तकाल से सामन्त व्यवस्था का प्राधान्य हो जाता है। जैन पुराणों के प्रणयन काल के जैनेतर साक्ष्यों से भी सामन्त व्यवस्था की पुष्टि होती है। समुद्रगुप्त की प्रयागप्रशस्ति में उत्कीर्ण है कि अधीनस्थ राजा अपने स्वामी को यथाशक्ति धन, सम्पत्ति, एवं कन्या आदि उपहार स्वरूप प्रदान कर स्वामी द्वारा अनुदिष्ट चिह्न धारण करते थे।' डॉ. रामशरण शर्मा के मतानुसार सामन्त व्यवस्था का उद्भव मौर्योत्तर काल एवं विकास गुप्त काल में हुआ था। छठीं शती