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१२वीं से १५वीं सदी के मध्य जैन .... : 39 मुहम्मद बिन तुगलक (१३२५-५१ई०) के काल में जैन गृहस्थों, व्यापारियों और आचार्यों को काफी स्वतंत्रता प्राप्त थी और अनेक की तो सीधे सुल्तान तक पहुँच थी। अपनी विद्वतापूर्ण रचनाओं के सहारे राजशेखर भीम, महेन्द्रसूरी, भट्टारक सिंहकीर्ति, सोमप्रभसूरी, सोमतिलक और जिनप्रभसूरी को सुल्तान की कृपा दृष्टि प्राप्त थी।५२ जिन प्रभसूरी खरतरगच्छ के आचार्य जिनकुशलसूरी के पट्टधर थे जिनका मुहम्मद बिन तुगलक के दरबार में अत्यधिक प्रभाव था। इसका विस्तृत विवरण 'विविध तीर्थकल्प' तथा दूसरे अन्य ग्रंथों में मिलता है। 'विविध तीर्थकल्प' में १३२८-२९ई० की एक घटना का वर्णन है। जब एक शिकदार ने आसीनगर पर हमला करके अनेक जैन गृहस्थों और श्रावकों को गिरफ्तार कर लिया और पार्श्वनाथ की मूर्ति तोड़ दी। लेकिन महावीर की मूर्ति को, जो सुरक्षित बच गयी थी, देहली ले जाकर तुगलकाबाद में रख दिया गया जहाँ वह १५ माह तक तुर्कों के संरक्षण में थी। कालान्तर में मुहम्मद बिन तुगलक और जिनप्रभसूरि दोनों देवगिरि से दिल्ली पहुंचे। इससे प्रभावित होकर सुल्तान ने सूरी को अपने दरबार में बुलाकर हाल-चाल पूछा और अपनी बगल में आसन दिया। रात-भर उनसे बातचीत की। सुल्तान उनके काव्य कौशल और ज्ञान से प्रसन्न हुआ, उन्हें कुछ कम्बल
और मूल्यवान उपहार तथा एक हजार गाये भेंट की, जिनमें से सूरी ने थोड़ा सा ही स्वीकार किया। तब सूरी ने उससे शत्रुजय, गिरिनार और फलबद्धी के जैन तीर्थों की सुरक्षा के बारे में एक फरमान जारी करने की प्रार्थना की।५३ जिनप्रभसूरी के मार्गदर्शन में मुहम्मद बिन तुगलक पालिताना के शत्रुजय तथा गिरनार के जैन मंदिरों में भी गया। शत्रुजय मंदिर में उसने जैन भक्तों के साथ भक्ति के कुछ कर्म संपन्न किये। उसने एक नवीन 'बस्ती उपाश्रय' (साधुओं के ठहरने के लिए धर्मशाला) का निर्माण कराने के लिए शाही मुहर लगा हुआ एक “फरमान' भी जारी किया।५४ बरिहागढ़ शिलालेख में सुल्तान द्वारा एक गोमठ (गायों के रहने का स्थान) के निर्माण की घोषणा का भी उल्लेख मिलता है।५५ विविध तीर्थकल्प में ही यह विवरण प्राप्त होता है कि बरसात में एक दिन जिनप्रभसूरी जब सुल्तान के शाही महल में पहुँचे तो सुल्तान ने कपड़े से उनके गंदे पैर साफ किया।५६ सूरी ने आशीर्वाद दिया और उसकी प्रशंसा में कुछ पद कहे। सुल्तान प्रसन्न हुआ। तब सूरी ने सुल्तान से प्रार्थना किया कि तुगलकाबाद में रखी हुई महावीर की मूर्ति उन्हें प्रदान कर दी जाय। मूर्ति तुरन्त मंगवाकर सूरी को भेंट की गयी। बाद में यह मूर्ति भारी समारोह के साथ मलिक ताजुद्दीन सराय में प्रतिष्ठित की गयी। आगे चलकर (सुल्तान के नाम पर) सुल्तान सराय नामक एक जैन मठ