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१२वीं से १५वीं सदी के मध्य जैन .... : 37 विपुल धन व्यय वाला होता था। मार्ग चोर तथा शत्रु राजाओं के उत्पातों से आंतकित था।३१ ऐसी स्थिति में संघ यात्राओं का आयोजन संघपति की प्रभावशालिता, उनकी धनाढ्यता और शासकों की राज्य सभाओं में प्राप्त मान प्रतिष्ठा को सहज सिद्ध करता है। जैन श्रेष्ठी उच्च राजनीतिक और प्रशासनिक पदों पर भी नियुक्त हुए थे
और इस कारण उनका सभी वर्गों पर अच्छा प्रभाव था। कुछ परिवार तो अत्यधिक प्रतिष्ठित हो गये थे।३२ माण्डू के सुल्तान आलम शाह (अलपखाँ) उपनाम होशंगशाह गौरी के शासन काल १४२४ ई० में संघधिप होलिसाहू ने देवगढ़ में गरु के उपदेश से मुनि बसन्तकीर्ति तथा पद्यनन्दि और कई तीर्थङ्करों की प्रतिमाएं स्थापित करायी थी।३३ जिन महत्त्वपूर्ण शासकों से खरतर आचार्यों की भेंट हुई बतायी जाती है, उनमें गुजरात के दुर्लभराज चालुक्य, मालवा के नरवर्मन, त्रिवनिगिरि के कुमारपाल, देहली के मदनपाल, अजमेर के अर्णवराज और पृथ्वीराज, जालौर के उदय सिंह और चचिगदेव, देहली के सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक शाह खिलजी और गयासुद्दीन तुगलक का नाम प्रमुख है।४ खिलजी वंश के संस्थापक जलालुद्दीन फिरोज खिलजी (१२९०-९६ई०) के शासनकाल में नयन नामक जैनी अफसर था, जबकि उसका बेटा तुगलक काल में मेरू तमाम में नियुक्त था।३५ जबकि अलाउद्दीन खिलजी (१२९६-१३१६ई०) के काल में टकसाल का अधिकारी ठाकुर फेरू नामक श्रीमाल जैनी था, जो शहाबुद्दीन उमर, कुतुबुद्दीन मुबारकशाह खिलजी और गयासुद्दीन तुगलक के काल में भी इसी पद पर नियुक्त था।६ ठाकुर फेरू के पुत्र हेमपाल को अपने पिता के अनुभव से लाभ मिला। उसने रत्न, द्रव्य आदि विषयों पर आधारित ग्रंथो की रचना की, जिसमें प्रमुख हैं- रत्न-परीक्षा, द्रव्य-परीक्षा आदि। ऐसा प्रमाण मिलता है कि दिगम्बर जैन आचार्य महासेन ने अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में अपने विरोधियों के साथ शास्त्रार्थ किया था, जिससे सुल्तान काफी प्रभावित हुआ था। दिल्ली का एक और दिगम्बर जैन आचार्य पूर्णचन्द्र भी सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के काफी नजदीक था। सुल्तान ने श्वेताम्बर पंथ के जैन आचार्य रामचन्द्र सूरी को सम्मानित किया था।२९ दूसरी ओर खरतरगच्छ पट्टावली में अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में जैन सम्प्रदाय के खिलाफ हुए अत्याचारों का भी विवरण मिलता है। १३१३ई० में जिनचन्द्र सूरी ने जब जाबालिपुर (जालौर) में एक धार्मिक समारोह किया तो मलेच्छों ने उनके समारोह को भंग कर दिया और पूरे नगर पर कब्जा कर लिया। लेकिन ऐसा लगता है कि स्थिति एक-दो वर्षों में सामान्य हो गयी। १३१४ई० में मनाल नामक एक श्रीमाल के बेटों और उनके चचेरे भाइयों मल्ह और धंधू ने दूर-दराज स्थित फलूदी के पवित्र मंदिर तक, कम से कम तीन सौ गाड़ियों में भरी तीर्थयात्रियों