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80 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2013
कहलाता है।
कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा भी है
उवसमणो अक्खाणं उववासो वण्णिदो समासेण । भुजंता वि य जिदिंदिया होंति उपवासा।।४३९।।
अर्थ - तीर्थङ्कर गणधरादि मुनीन्द्रों ने उपशमन (इन्द्रियों की आसक्ति पर विजय ) को उपवास कहा है। इसीलिए जितेन्द्रिय मुनि भोजन करते हुए भी उपवासी कहलाते हैं। इसतरह उपवास में पांचों इन्द्रियों को संयमित करके शान्त परिणामी होना आवश्यक है। इसी आशा के साथ
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प्रो० सुदर्शन लाल जैन