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38 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2013 की भीड़ का नेतृत्व किया, बावजूद इसके कि अजमेर और उसके आस-पास के क्षेत्र विरोधी मुस्लिम फौजों के कारण आंतकित थे।४१ अनेक जैनी, जिन्होंने अलाउददीन खिलजी के समय में इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था, मियाना राजपूत कहलाये। (जैसा कि उनके नाम के अन्तिम शब्द से स्पष्ट है) (The Miyana Rajputs, many of whom were Jains (as per their last name) adopted Islam at the time of Alauddine Khilji)^2 गुजरात पर अलाउद्दीन खिलजी की विजय के बाद समरशाह (समरसिंह)३, ने १३१५ई० में सुल्तान से गुजरात में पालिताना के प्रसिद्ध शचुंजय मंदिर का जीर्णोद्धार करने की इजाजत प्राप्त कर ली थी। बाद में कुतुबुद्दीन मुबारक शाह खिलजी ने उन्हें अपना व्यवहारक बना लिया था। खरतरगच्छ पट्टावली से ही जानकारी मिलती है कि कुतुबुद्दीन मुबारक शाह खिलजी से १३१८ई० में ठाकुर अचलसिंह ने एक फरमान प्राप्त किया और जैनियों के लिए खरतरगच्छ के प्रमुख जिनचंद्र सूरी (१२४८-१३१९ई०) के नेतृत्व में हस्तिनापुर, मथुरा, कन्यानयन आदि तीर्थों की यात्रा का नेतृत्व किया। (इसे संघ-यात्रा कहा गया) इस यात्रा में टकसाल का अधिकारी ठाकुर फेरू भी शामिल हुआ था।६ आचार्य जिनप्रभसूरी की प्रशंसा असपति (खिलजी शासक) ने भी की थी, जिसका उल्लेख जैन काव्य संग्रहों में मिलता है। जिसमें कहा गया है कि शुक्ल पंचमी और शुक्ल एकादशी के दिन संत जिनप्रभसूरि को देहली में अपने दरबार में आमंत्रित किया था। तुगलक काल में दिल्ली, मालवा तथा गुजरात के जैन व्यापारियों का राजकीय संरक्षण में महत्त्व बढ़ा। तुगलक शासन काल में जैनियों को अत्यधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। इस वंश के सुल्तानों ने जैन गुरुओं का सम्मान किया था। तुगलक वंश के संस्थापक गयासुद्दीन तुगलक ने खरतरगच्छ के आचार्य जिनकुशल सूरी (१३२०८२ई०) के शिष्य धनी सौदागर धर्म सिंह के पिता रायपति के हक में १३२३ई० में एक फरमान जारी किया था।८ फरमान के अनुसार सैनिकों के संरक्षण में धनी सौदागर धर्मसिंह के पिता रायपति तीर्थयात्रा पर निकले और जब तीर्थयात्रा से वापस लौटे तो देहली में उनका धूम-धाम से स्वागत किया गया।९ १३२३ई० में ही गयासुद्दीन तुगलक ने एक और फरमान जारी करके संघ को भीमपल्ली से तीर्थयात्रा शुरू करने की इजाजत दी थी।५० सिद्धसूरी के शिष्य और कुतुबुद्दीन मुबारक शाह खिलजी के व्यवहारक समरशाह (समरसिंह) को गयासुद्दीन तुगलक अपने पुत्र के समान मानता था। समरशाह को सुल्तान ने तेलंगाना भेजा, जहाँ उन्होंने अनेक जैन मंदिर बनवाये। आगे मुहम्मद बिन तुगलक के काल में वे (समरशाह) तेलंगाना के हाकिम बने।५१